Sunday, June 30, 2013

#Corruption रिश्वत के लड्डू

पिछले कई साल से भ्रष्टाचार के नए कारनामे रोज राज्यों और केंद्र दोनों में ही  जनता के सामने आते रहे हैं. पर जन लोकपाल का अभी भी कहीं दूर दूर तक पता नहीं है. सरकार इस मुगालते में है कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है.



राजस्थान के टोंक ज़िले में स्वास्थ्य विभाग के दो कर्मचारियों को एक साल की सजा सुप्रीम कोर्ट ने दी है. ये सजा भ्रष्टाचार  निरोधी कानून यानि Anti Corruption Act  के तहत पिछले दिनों सुनाई गयी.  उनकी गलती इतनी भर थी कि उन्होंने अठारह साल पहले एक मरीज़ से डिस्चार्ज पर्ची देने के एवज में “मिठाई” मांगी थी. मरीज़ ने जब उन्हें सचमुच दो किलो लड्डू ला कर दिए तो कर्मचारियों ने “मिठाई” का असली मतलब समझाया. यानि लड्डुओं के बदले २५ रुपये मांगे. मरीज़ ने उन्हें भ्रष्टाचार निरोधक शाखा से रंग हाथों पकडवा दिया.

लड्डू रिश्वत का मामला १९९४ का है. उस वक़्त का जब देश में नरसिम्हा राव सरकार थी और सेंट किट्ट्स, हवाला, सांसद रिश्वत कांड और हर्षद मेहता जैसे बड़े बड़े मामले हवा में थे. सवाल है कि २५ रूपए की कीमत के दो किलो लड्डुओं के लिए मुकुट बिहारी और कल्याण लाल नाम के दो अदने कर्मचारिओं को सुप्रीम कोर्ट १८ साल बाद भी सजा देता है पर  बड़े मामलों पर जब हल्ला मचता है  तो न्यायालय से लेकर कार्य पालिका तक असहाय और पंगु नज़र आते हैं. लीपा पोती करते हैं. और तो और जब अन्ना हजारे जैसे समाज सेवी भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ताकतवर जन लोकपाल लाने के लिए मुहीम चलाते हैं तो ये सरकार उन्हें और उनके साथियों को ही बदनाम करने कि शाजिश करती है. हल्ला मचाया जाता है कि जन लोक पाल की माँग संसद की स्वायतत्ता और लोकतन्त्र पर हमला है ? संसद में सरकार की शह पर विधयेक फाड़ दिया जाता है. हमें समझाया जाता है कि हमारी सांवैधानिक वयवस्था में जन प्रातिनिधि सबसे ऊपर हैं ! अर्थात उन्हें चुनने वाली जनता से भी ऊपर. सारे तर्कों का लब्बोलुआब ये कि जैसा चल रहा है चलते रहने दो. अगर जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा व्यव्स्था में बैठे लोग खा रहे है तो सवाल मत करो !

ये संयोग नहीं है कि पिछले दो तीन साल में भ्रष्टाचार के खिलाफ देश मैं कई आन्दोलन हुए हैं. अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने आन्दोलन के तहत दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे थे. उस समय पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ लोग एकजुट हुए थे. ये लोग देश के हर प्रान्त में, हर कोने में बिना जात , धर्म, संप्रदाय, लिंग, उम्र, सामाजिक और आर्थिक हैसियत के भेद के इस उम्मीद से अनशन में शामिल हुए थे कि अन्ना के इस अनशन से सरकार और राजनीतिक पार्टिया जागेंगी और एक ऐसा कानून लाएंगी जिससे भ्रष्टाचार के राक्षस से देश को मुक्ति मिलेगी. बाबा रामदेव ने भी दिल्ली में अनशन किया था.

सवाल ये है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इतना आक्रोश होते हुए भी आज तक उसके खिलाफ कोई मारक कदम क्यों नहीं उठाया गया? सारे सत्ताधारी – बिना किसी दलीय  अपवाद के इस लूट की नदी में मिलकर हाथ साफ़ करते रहे हैं. इस ‘हमाम में सब नंगे’ हैं. भ्रष्टाचार का जंग पूरे समाज की जड़ों को काट रहा है. पिछले कई साल से भ्रष्टाचार के नए कारनामे रोज राज्यों और केंद्र दोनों में ही  जनता के सामने आते रहे हैं. पर जन लोकपाल का अभी भी कहीं दूर दूर तक पता नहीं है. सरकार इस मुगालते में है कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है.

लोग तंग आ चुके हैं. आम आदमी को रोज अपने छोटे मोटे काम करवाने के लिये ‘मुटठी गर्म’ करनी पड़ती है या साहब की  ‘मिठाई या चायपानी’ का इंतजाम  करना पडता है. इसलिए ये अच्छा हुआ कि दो किलो लड्डुओं के लिए मुकुट बिहारी और कल्याण लाल को एक साल जेल की सजा हुई पर मैं पूछना चाहता हूँ इस देश के प्रधान मंत्री से, सुप्रीम कोर्ट से और संसद से कि आप लोग कब तक टाल सकेंगे भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े क़दमों को ? २५ रुपये के लिये दो किलो लड्डुओं कि रिश्वत के दोषियो पर ही मत रुकिए. ऐसा इंतजाम कीजिये कि हर भ्रष्टाचारी सलाखों के पीछे हो चाहे वो प्रधानमंत्री हो या बड़ा अफसर या फिर जज. नहीं तो लड्डू रिश्वत कांड में ये सजा हास्यास्पद बन कर रह जायेगी. क्या “समरथ को नहि दोष गुसाईं” की कहावत अपने इस विकृत रूप में ऐसे ही चरितार्थ होती रहेगी? क्या सिर्फ़ २५ रुपये की रिश्वत लेने वाले ही जेल जायेंगे और जनता का अरबोँ रुपये खा जाने वाले डकार भी नहीं लेंगे?   

Saturday, June 29, 2013

भ्रष्टाचार और छोटे राज्य


भ्रष्टाचार इन राज्यों की सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरा है. ये बात नहीं है कि देश के अन्य हिस्सों में भ्रष्टाचार नहीं हैं पर जिस पैमाने और तरीके से छोटे राज्यों मे ये समस्या आई है कई बार उससे हैरत हो जाती है!!


ये अब देश में बहस का मुद्दा नहीं रह गया है कि छोटे राज्य होना ठीक है या नहीं. हरियाणा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने जिस तरह से देश की विकास यात्रा में हिस्सा लिया है उससे साफ़ है कि अगर इन राज्यों में राजनीतिक स्थिरता और थोडा भी उद्देश्यपूर्ण नेतृत्व रहे तो फिर पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं है. मगर हर विकास नयी परिस्थितियों, संभावनाओं और संकटों को जन्म देता है. अब जो चुनौतियाँ इन राज्यों के सामने आ रहीं हैं या आ सकती है उनका आकलन और निराकरण  अगर आज नहीं हुआ तो जिन उद्देश्यों को लेकर इनका गठन हुआ था वही खतरे में पड़ जाने की आशंका है.

भ्रष्टाचार इन राज्यों की सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरा है. ये बात नहीं है कि देश के अन्य हिस्सों में भ्रष्टाचार नहीं हैं पर जिस पैमाने और तरीके से छोटे राज्यों मे ये समस्या आई है कई बार उससे हैरत हो जाती है. याद कीजिये कि किस तरीके से झारखण्ड में मधु कोड़ा ने मुख्यमंत्री के तौर पर दो साल से भी कम समय में ४००० करोड रूपये का गबन किया या फिर किस तरीके से गोवा की खानों से अवैध खनन होता रहा. और किस तरीके से तकरीबन हर राज्य में रियल इस्टेट कारोबारिओं के साथ मिलकर लूट का धंधा चल रहा है. इनमें राज्यों के मुख्यमंत्रिओं, मंत्रिओं से लेकर रोबर्ट वाड्रा तक के नाम सामने आते रहे हैं. कोंग्रेस हो या बीजेपी कोई भी पार्टी इससे अछूती नहीं है.

हुआ यों है कि एक बार पूर्ण बहुमत मिलने के बाद इन राज्यों का नेतृत्व एकदम निरंकुश सामंतों की तरह व्यवहार करने लगता है. कोई भी नियम या कानून ये मानने को तैयार नहीं. जी हुजूरी और चापलूसी करने वाले अफसर ही इन राज्यों में महत्वपूर्ण पद पाते हैं. हरियाणा में चौटाला पिता पुत्र नें किस तरह से शिक्षा विभाग में मनमानी की और अब वो जेल में हैं ये सब जानते हैं.

इन राज्यों में राज नेता ही निरंकुश और भ्रष्ट नहीं हुए हैं. नव धनाड्यों का एक ऐसा वर्ग भी पैदा हुआ है जो सारे संसाधन अपने हाथ में ले लेना चाहता है. “व्यापारी-भ्रष्ट्र राजनेता-अफसरों” की एक लालची तिगड़ी पैदा हो गई है जो विकास योजनाओं में प्राप्त होने वाले धन, प्राकृतिक संसाधनों, सरकारी ठेकों और हर उस आयोजन को कंट्रोल करती है जहाँ पैसा या ताकत है. इस वर्ग को कोई नियम कोई कायदा मान्य नहीं. अपनी पंसन्दीदा चीज़ के लिए ये किसी भी हद तक जा सकते हैं. हरियाणा के सिरसा में जूते की दूकान से एयरलाइन्स का मालिक और राज्य सरकार में मंत्री बना गोपाल कांडा इसका एक नमूना भर है.

छोटे राज्यों के शहरों में किसी भी स्तर पर होने वाले विरोध को डरा धमका कर या लालच देकर दबा दिया जाता है. बड़े शहरों की तरह इन राज्यों में ऐसी सिविल सोसायटी नहीं बन पाई है जो “व्यापारी-भ्रष्ट्र राजनेता-अफसरों” की इस लालची और निरंकुश तिगड़ी पर थोडा भी नैतिक नियंत्रण रख पाए. इस कारण से शहरीकरण और औद्योगीकरण से उत्पन्न हुए बड़े खतरों जैसे जिहादी आतंकवाद, जंगलों से शहरों की और बढते लाल गुरिल्लाओं के आतंक, शहरों में फ़ैल रहे स्लम, संसाधनों के असंतुलित वितरण और इनके साथ पैदा होने वाली प्रशासनिक जटिलताओं की तरफ किसीका ध्यान ही नहीं है. यही कारण है कि छत्तीसगढ़ मे बस्तर की दरभा घाटी में कोंग्रेस नेताओं की नृशंस हत्या के पन्द्रह दिन बाद भी न तो राज्य कोंग्रेस और न ही राज्य की भाजपा सरकार एक नयी नीति बनाने का संकेत भी दे पाई है. एक और मोहल्ले के नेताओं की तरह कोंग्रेसी नेता एक दूसरे पर शब्दवाण चला रहे हैं और राज्य सरकार भी हाथ पर हाथ धरे न जाने किसका मुँह ताक रही है. भाजपा को भी इस मुद्दे पर कोंग्रेस नेताओं के खिलाफ गली मोहल्ले में चलने वाली बचकानी  अफवाहों पर राजनीतिक रोटी सेकने में मज़ा आ रहा है. जबकि समस्या कितनी गंभीर है ये सबको मालूम हैं.

कुल मिलाकर छोटे राज्यों के सामने आने वाली प्रशासनिक, सुरक्षागत और संसाधनों के संतुलित  वितरण की चुनौतियाँ बेहत जटिल और विषम हैं. इनसे निपटने के लिए नए संकल्पों और नये ढांचों की ज़रूरत है. पर क्या इन राज्यों का राजनैतिक, प्रशासनिक, अकादमिक और सामाजिक नेतृत्व इसके लिए तैयार है ? ये एक अहम सवाल है.

उमेश उपाध्याय
२९ जून २०१३

Thursday, June 13, 2013

आडवानी - खंडित प्रतिमा



आडवानी - खंडित प्रतिमा

“लौह पुरुष” लाल कृष्ण आडवानी ने इस्तीफ़ा क्यों दिया और फिर क्यों वापस लिया यह  राजनीतिक गुत्थी बड़ी जटिल है. घोर अचम्भित कर देने वाले इस  राजनीतिक ड्रामे के कारणों के बारे में राजनीतिक पंडित  कयास लगाते रहेंगे. इसके नफा नुक्सान का अंदाजा भी लगाया जाता रहेगा. नुक्सान सबको हुआ है चाहे वो भाजपा हो, मोदी हो या फिर एनडीए, पर अगर इसका असली नुक्सान किसी को हुआ है तो वो हैं खुद लाल कृष्ण आडवानी. इया बात का अनुमान शायद स्वयं आडवानी को भी नहीं होगा कि अपने इस एक कदम से वे अपनी जीवन भर की पूँजी गवाँ बैठे है. भाजपा जैसे काडर आधारित दल में राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी पूँजी होती है आम लोगों से मिलने वाला विश्वाश, एकनिष्ठता और प्रतिष्ठा. क्या अब कहा जा सकता है कि आडवानी के पास ये बचा है? भरोसा न हो तो साइबर स्पेस में आम लोंगो द्वारा हो रही टीका टिप्पणियाँ देख लें.
प्रधान मंत्री बनने का सपना देखना प्रजातान्त्रिक वयवस्था में कोई बुरी बात नहीं. और आडवानी के लिए तो ये कोई शेखचिल्ली के ख्वाब जैसा भी नहीं. वे देश के उप प्रधान मंत्री रह चुके हैं. इसलिए प्रधान मंत्री की कुर्सी उनके लिए स्वाभाविक और सहज ही है. देश में इस पद के कई दावेदारों से वे निस्संदेह बेहतर ही सिद्ध होंगे. मगर आडवानी का आडवानी होना क्या किसी पद का मोहताज था? उनके विरोधी भी सहमत होंगे कि उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा सिर्फ़ पद पर आधारित नहीं. लेकिन आज ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने सारे राजनीतिक वजूद को इस एक पद की तराजू पर तोल दिया. क्या अब उनका राजनीतिक कद पार्टी में एक शीर्ष पुरुष का रह जाएगा? क्या अब जब वो कोई बात बोलेंगे तो उसका वजन संघ परिवार में पहले जितना रहेगा?
इस्तीफ़ा देने और वापस लेने के पीछे उनकी मंशा क्या थी ये तो खुद आडवानी ही बता सकते हैं. मगर आश्चर्य है कि उन जैसा नेता उसके असर के आकलन में इतनी चूक कैसे कर गया. उससे  पार्टी के उन नेताओं के स्वभाव और राजनीतिक रुख को भांपने में उनसे इतनी बड़ी गलती कैसे हो गयी जिनको उन्हीने राजनीति का ककहरा पढाया है. क्या उन्हें लगता था पार्टी अपना  फैसला और मोदी को दिया गया पद वापस ले लेगी? क्या इसके बाद आडवानी के राजनीतिक आकलन पर कोई भरोसा कर पायेगा?
इस प्रकरण से पहले उन्हें भाजपा को दो सीटों वाली पार्टी  से सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाने वाला माना जाता था. एक ऐसा नेता जो इस उम्र तक भी खूब पढ़ता लिखता है. एक ऐसा नेता जिसने अपनी पार्टी के लिए जीतोड महनत की और फिर वाजपेयी को प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त घोषित किया. हर राजनेता की तमन्ना अपना नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज कराने की होती है मगर सवाल है कि इस्तीफ़ा प्रकरण के बाद आडवानी को इतिहास कैसे याद करेगा?
कारण  और परिस्थितिया कोई भी रहीं हों और अंदरखाने कुछ भी हुआ हो एक बात तो तय है कि आडवानी ने जिस प्रतिमा को बड़े जतन , मनोरथ , स्वाध्याय और निश्चय के साथ पूरा जीवन देकर बनाया था वो उनके ही हाथों खंडित हो गई. और इतना तो आडवानी और उनके नज़दीकी जानते ही होंगे कि भारत में खंडित प्रतिमा की न तो पूजा होती हैं न उसपर फूल चढ़ाये जाते है.

उमेश उपाध्याय
१३ जून २०१३