Wednesday, October 9, 2013

#Electoral Reforms चुनाव सुधार : उच्चतम न्यायालय का एतिहासिक फैसला

भारत में अब गलत छवि वाले उम्मीदवारों को रद्द करने का अधिकार यानि “राइट टू रिजेक्ट” लोंगों को मिल गया है. उच्चतम न्यायालय और चुनाव आयोग दोनों ही बधाई के पात्र हैं. न्यायालय इस फैसले के लिए और  जिस रफ़्तार के साथ फैसले को लागू किया गया है उसके लिए चुनाव आयोग की जितनी भी सराहना की जाए वो कम है.

  
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली और मिजोरम के अगले महीने होने वाले चुनावों में मतदाताओं को ये अधिकार भी होगा वे हर प्रत्याशी को “रद्द कर” सकें. ईवीएम मशीन में “इनमें से कोई भी नहीं” यानि “नोटा” का विकल्प भी चुनाव आयोग इस बार देने जा रहा है. ये एक बड़ा चुनाव सुधार है जो उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद आया है. इसके तहत भारत में अब गलत छवि वाले उम्मीदवारों को रद्द करने का अधिकार यानि “राइट टू रिजेक्ट” लोंगों को मिल गया है.

यह अधिकार हांलाकि अभी अधूरा ही है. ऐसा नहीं होगा कि अगर किसी क्षेत्र के अधिकांश मतदाताओं ने “रद्द करने” का विकल्प चुना तो भी फिलहाल चुनाव रद्द नहीं होगा और बचे हुए मतों में से जिस प्रत्याशी को ज्यादा वोट मिलेंगे वो जीता हुआ घोषित कर दिया जाएगा. उदहारण के लिए अगर किसी क्षेत्र में 90 प्रतिशत मतदाता अगर “इनमें से कोई नहीं” के विकल्प को अपना मत देते हैं तो बचे हुए 10 प्रतिशत वोटों में से जो प्रत्याशी “बहुमत” पायेगा वो जीत जाएगा. होना तो ये चाहिए था कि ये मतदान ही रद्द हो जाता और दोबारा चुनाव होता. कई देशों में इस तरह की वयवस्था है.

उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में उम्मीद जताई है कि इस विकल्प के बाद राजनीतिक दलों पर दबाव पड़ेगा और वे अपने प्रत्याशी चुनते हुए “जनता की इच्छा” का ध्यान रखेंगे और साफ़ सुधरी छवि वाले लोंगों को ही अपना उम्मीदवार बनायेंगे. न्यायालय का मानना हैं कि ये “नकारात्मक मतदान” धीरे धीरे भारतीय लोकतंत्र में एक व्यवस्थात्मक परिवर्तन लाएगा. हम उम्मीद करते हैं कि न्यायालय की ये आशा पूरी होगी अन्यथा आज की राजनीतिक दलों की जो स्थिति है उसे देखते हुए तो लगता नहीं कि ऐसा जल्द ही होगा.

आज जिस तरह का भाई भतीजावाद, धनबल और बाहुबल का बोलबाला राजनीतिक दलों के बीच है उससे तो एक गहरी निराशा का भाव मन में आता है. सोचिये क्या मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी, करूणानिधि की डीएमके, शरद पंवार की एनसीपी, बादल का अकाली दल, चौटाला का लोकदल, और लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल अपने परिवार के प्रत्याशियों से बाहर आ पायेगा ? कई बार कितना हास्यास्पद लगता है. इनके सब रिश्तेदार तो सांसद या विधायक है. बहू, बेटी, बेटा, पत्नी, भतीजा, भतीजी, भाई, चाचा, साला, मामा और ना जाने कौन कौन? जैसे कि इन्हें उम्मीदवार मिलते ही नहीं. इन जैसे दलों को अच्छे बुरे प्रत्याशियों से क्या लेना देना? बस प्रत्याशी होने के लिए रिश्तेदारी ज़रूरी है.

और अगर आप इनके रिश्तेदार नहीं है तो फिर आपके पास मोटा पैसा होने चाहिए. चुनाव लड़ने के लिए और पार्टी को देने के लिए भी.  किसी तरह टिकेट मिल भी गया तो करोंड़ों रुपये लगते हैं एक पार्षद के चुनाव तक में. ऐसे में कोई आम आदमी चुनाव लड़ने की सोच भी कैसे सकता है?

अगर राजनीति के अपराधीकरण की बात लें तो मौजूदा लोकसभा में ही 162 सांसद ऐसे हैं जिन पर अदालतों में आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं. इनमें से आधे से ज्यादा पर हत्या, किडनेपिंग, दंगा भड़काने, डकैती, चोरी, धोखाधड़ी, गबन, फिरौती मांगने और रिश्वत लेने जैसे संगीन जुर्म करने के आरोप हैं. राज्य विधानसभाओं की स्थिति तो और भी बदतर है. सवाल है कि क्या ये दल और ये बाहुबली चुनाव लड़ना छोड़ देंगे? बेहतर होता कि न्यायालय ये वयवस्था भी करता कि यदि “इनमें से कोई भी नहीं” के विकल्प को किसी क्षेत्र में 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले तो वो चुनाव ही रद्द हो जाएगा. इससे स्वतः ही राजनीतिक दल ऐसे नेताओं को टिकट नहीं देने के लिए मजबूर हो जाते.

फिर भी ये फैसला स्वागत योग्य है क्योंकि चुनाव सुधार की दिशा में यह एक बड़ा और सराहनीय कदम है. इसके लिए उच्चतम न्यायालय और चुनाव आयोग दोनों ही बधाई के पात्र हैं. न्यायालय इस फैसले के लिए और  जिस रफ़्तार के साथ फैसले को लागू किया गया है उसके लिए चुनाव आयोग की जितनी भी सराहना की जाए वो कम है. उम्मीद है कि अब वो लोग भी वोट करने सामने आएंगे जो मतदान के दिन ये सोच कर कर घर से बाहर नहीं निकलते थे कि किसे वोट दिया जाए. क्योंकि सभी प्रत्याशी उन्हें चोर चोर मौसेरे भाई जैसे लगते थे. अब वे गलत प्रत्याशियों को “रद्द” कर अपना रोष ज़ाहिर कर सकतें हैं.

मगर राजनीति को साफ़ करने के लिए अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है. जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आन्दोलन के समय से वापस बुलाने के अधिकार यानि “राइट टू रीकॉल”, और चुनावों की राज्य द्वारा फंडिंग जैसे कई चुनाव सुधार उपाय लंबित पड़े हुए है. सोशल मीडिया के इस युग में  लोकतंत्र को सार्थक बनाए रखने के लिए इन्हें अविलम्ब लागू करने की ज़रूरत है.  जब जनता के हाथ में इन अधिकारों की झाड़ू आ जायेगी तो देश की राजनीति में जो कूड़ा जमा हो गया है और उससे जो सडांध और बदबू निकल रही है उसे साफ़ करना मुश्किल नहीं होगा.

उमेश उपाध्याय
7 अक्तूबर 2013

मौनी बाबा अब तो बोलो !

प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह अब क्या करेंगे? अपने पद, मंत्रिमंडल और सरकार की प्रतिष्ठा बचाते हुए इस्तीफ़ा देंगे? गांधी परिवार के प्रति उनकी निष्ठा भारतीय संविधान की गरिमा और पद के सम्मान से उपर नहीं हो सकती. सवाल सिर्फ़ उनके व्यक्तिगत सम्मान का ही नहीं. प्रधान मंत्री और मंत्रिमंडल की सार्वजनिक प्रताडना, भर्त्सना और अपमान किसी भी पार्टी का अंदरूनी मामला नहीं हो सकता.



प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह अब क्या करेंगे? अपने पद, मंत्रिमंडल और सरकार की प्रतिष्ठा बचाते हुए इस्तीफ़ा देंगे या फिर ”परिवार” के प्रति अपनी “अटूट आस्था” का निर्वाह करते हुए एक बार फिर खून का घूँट पी कर रह जायेंगे ? कोंग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी ने सार्वजनिक रूप से सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश की भर्त्सना कर और उसे “बकवास” बता कर एक अजीब सा संकट पैदा कर दिया है . जैसा कि राहुल गाँधी ने कहा कि “उन्हें इस बात से मतलब नहीं कि विपक्षी नेता क्या कह रहे हैं, उन्हें मतलब सिर्फ़ इस बात से है कि कोंग्रेस पार्टी क्या कर रही है.” पर क्या सवाल सिर्फ़ इतना सीधा है ? मंत्रिमंडल द्वारा पारित किया गया अध्यादेश जो कि राष्ट्रपति के पास भेज दिया गया हो कोंग्रेस पार्टी का अंदरूनी मामला नहीं है. वह एक आधिकारिक और सरकारी दस्तावेज़ है जिस पर पूरे मंत्रिमंडल की मोहर लगी है.

क्या ये संभव है कि पार्टी में बहस हुए बिना ये मंत्रिमंडल ने पारित किया हो? तो फिर जब पार्टी में इस पर बहस हुई तो राहुल और कोंग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने इसे क्यों नहीं रोका ? ये कोई ऐसा मुद्दा नहीं था जो गुपचुप कर लिया गया हो. उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद पूरे देश में और  मीडिया में इस पर चर्चा हो रही थी. संसद में भी इस पर बहस हुई थी. तब राहुल चुप क्यों रहे? इसीलिये सवाल इस अध्यादेश के सही और गलत होने का भी नहीं है. साफ़ है कि राहुल गांधी का नाटकीय बयान उनकी बाद की सोच है?

कोंग्रेस पार्टी और राहुल गांधी को पूरा अधिकार है कि वे अपनी नीतियों, सोच और फैसलों में कितने ही बदलाव करें. परन्तु प्रधान मंत्री और मंत्रिमंडल की सार्वजनिक प्रताडना, भर्त्सना और अपमान किसी भी पार्टी का अंदरूनी मामला नहीं हो सकता. राहुल गांधी भूल गए कि डा मनमोहन सिंह कोई कोंग्रेस के नहीं पूरे देश के प्रधानमंत्री हैं. उन्होंने देश के इस सबसे बड़े पद की मर्यादा बनाए रखने की शपथ ली है. गांधी परिवार के प्रति उनकी निष्ठा भारतीय संविधान की गरिमा और पद के सम्मान से उपर नहीं हो सकती. सवाल सिर्फ़ उनके व्यक्तिगत सम्मान का ही नहीं बल्कि उच्च  सांविधानिक पद की मर्यादा, राजनीतिक औचित्य और लोकतान्त्रिक मूल्यों का है.
राहुल गांधी शायद नहीं जानते कि उन्होंने शुक्रवार की दोपहर प्रेस क्लब में हो रही अजय माकन की प्रेस कोंफ्रेंस में तीन मिनट में क्या कर दिया है? अगर वो इसकी गंभीरता समझ पाते तो निश्चित ही ऐसा नहीं करते. उन्होंने न सिर्फ़ देश के केंद्रीय मंत्रिमंडल और प्रधानमन्त्री के पद को असाधारण नुकसान पहुँचाया है बल्कि अपने परिवार की विरासत, अपनी राजनीतिक समझ और लोकतान्त्रिक मर्यादा को दीर्घकालिक क्षति पहुंचाई है.

डा मनमोहन सिंह की राजनीतिक कार्यशैली, नीतिओं, आर्थिक सोच, दूसरे कार्यकाल में उनकी अकर्मण्यता और निर्णयहीनता की आप कितनी ही आलोचना करें उनकी सज्जनता और भलमनसाहत पर उंगली उठाना मुश्किल है. वे राहुल गांधी द्वारा इन शब्दों में सार्वजनिक निंदा के पात्र कदापि नहीं थे. उनके नज़दीकी लोग जानते हैं कि कई मौकों पर वे अपने निजी आग्रहों को छोड़कर पार्टी और परिवार के फैसलों पर अमल करते रहे हैं पर शुक्रवार का “फाड कर फैंक देने के लायक” और “पूरी तरह बकवास” प्रकरण संभवतः उनकी उस अंतरात्मा को भी झिंझोड दे जो उन्होंने “परिवार” के प्रति कृतज्ञता और एक “रहस्यमयी” कर्तव्यनिष्ठा को गिरवी रख छोड़ी है.

सबकी नज़रें अब डा मनमोहन सिंह पर रहेंगी कि वे अभी भी इन निजी निष्ठाओं के गुलाम रहकर कुछ और महीनों के लिए ऐसे प्रधानमंत्री बनकर रहना चाहेंगे जो इस तरह लताड़ा गया हो या फिर अपनी और अपने मंत्रिमंडलीय साथियों के पद और गरिमा की रक्षा करते हुए इस्तीफ़ा देने का साहस दिखायेंगे चाहे फिर नवंबर में चार राज्यों के साथ ही लोकसभा के चुनाव कराने की तोहमत उनके सर क्यों न पड़े. अगर वे ऐसा कर पाए तो वे फिर कुछ मात्रा में ही सही वे उस सम्मान को प्राप्त कर पायेंगे जो अपने इस दूसरे कार्यकाल में उन्होंने खोया है. अन्यथा एक कमज़ोर, शक्तिहीन और बिना रीढ़ के भारतीय प्रधानमंत्री की उनकी छवि इतिहास के पन्नों में सदा के लिए दर्ज हो जायेगी.  इस स्थिति के लिए जब वे राहुल गांधी से ज्यादा ज़िम्मेदार ठहराएं जायें तो फिर उन्हें आपत्ति नहीं होनी चाहिए.


उमेश उपाध्याय
28 सितम्बर 2013  

राजनीतिक दल : सैयाँ भये कोतवाल

पक्ष हो या विपक्ष हमाम में सब नंगे हैं.पार्टियां भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण के विरोध में लिए कितनी ही बड़ी बड़ी बातें क्यों न करें असल में कुछ करना नहीं चाहतीं, और जब सुप्रीम कोर्ट कुछ करता हैं तो ये कानून ही बदल देतीं हैं. 


संसद में सारे राजनीतिक दल किसी मुद्दे पर एक हों ऐसा नज़ारा कम ही दिखाई देता है. अक्सर ज़रा सी बात पर ये दल तलवार खींचे रहते हैं. अक्सर कोफ़्त होती है कि राष्ट्रीय हित पर ये एक क्यों नहीं होते? मगर आश्चर्य ! पिछले सत्र में ये एक बार नहीं तीन तीन बार सारी पार्टियां एक हुईं. मगर अफ़सोस, मुद्दे राष्ट्रीय हित के नहीं बल्कि पार्टी हित के थे. इन तीनों ही ख़बरों पर लोगों का उतना ध्यान नहीं गया जितना जाना चाहिए था. वे मुद्दे जिन पर सारे राजनीतिक दल संसद में एक हो गए थे - एक, उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के तरीके में बदलाव का विधेयक, दूसरा, राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखने का विधेयक और तीसरा जेल गए जनप्रतिनिधियों से चुनाव लड़ने का अधिकार छीनने वाले उच्चतम न्यायालय के फैसले को उलटने वाला विधेयक. ये तीनों ही मुद्दे सार्वजनिक जीवन में शुचिता, नैतिकता और पारदर्शिता से जुड़े हुए हैं. लेकिन राजनीतिक दलों ने इसका उल्टा ही किया.

सबसे पहले बात करते हैं उच्चतम न्यायालय के जुलाई महीने के उस फैसले की जिसके तहत उसने ऐसे नेताओं को चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया था जो जेल में बंद हैं. अभी तक ऐसे नेता इस बहाने जेल से भी चुनाव लड़ते रहे हैं कि उनका मामला बड़ी अदालत में लंबित है. और जैसा कि होता रहा है ये मामले निचली अदालत से उच्च न्यायालय और फिर वहाँ से उच्चतम न्यायालय जाते हैं. यानि फैसला होने में बरसों बीत जाते हैं और ऐसे नेता चुनाव लड़ते रहते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ साफ कहा कि आप जेल से चुनाव नहीं लड़ सकते. ये एक ऐसा फैसला था जिससे राजनीति के अपराधीकरण को समाप्त करने में मदद मिलती.

मगर राजनीतिक दलों की जल्दबाजी तो देखिये 6 सितम्बर को सिर्फ़ 15 मिनट में लोकसभा में बिना किसी बहस के जन प्रातिनिधि कानून में संशोधन कर दिया गया और सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को बदल दिया गया. लोकसभा में ऐसी एकता पहले नहीं देखी गई थी. कहाँ कोयला घोटाले में संसद में जूतमपजार हो रही थी कहाँ सब अपने जेलबंद साथियों को बचाने सब एक हो गए?
दूसरा मसला था सूचना के अधिकार के कानून से राजनीतिक दलों को बाहर रखने का. पिछले महीने संसद में सूचना के अधिकार के दायरे से राजनीतिक दलों को बाहर रखने के लिए कानून मे बदलाव का बिल लोकसभा में सरकार ने रखा. इसका तृणमूल कोंग्रेस को छोडकर सारे दलों ने समर्थन किया. राजनीतिक दलों का कहना है कि अगर वे आरटीआई के दायरे में आये तो बहुत सी “गोपनीय” सूचना उन्हें जनता को देनी पड़ेगी. है न कमाल की बात? जनता के “चंदे” से चलने वाले दल जनता को सूचना देने से डरते हैं?

इसका बड़ा कारण है. राजनीतिक दलों के पास छुपाने को बहुत कुछ है. इसके लिए एक ही उदाहरण काफी होगा. एक अध्ययन के मुताबिक़ 2004-05 से 2010-11 के बीच अगर पार्टियों के आयकर रिटर्न को देखा जाए तो 6 बड़े राजनीतिक दलों को 4895 करोड रुपये का चन्दा मिला. इसमें से 3674 करोड यानि 75 % पैसा अज्ञात स्रोतों से आया. ये दल हैं कोंग्रेस, बीजेपी, सीपीआई, सीपीएम, बीएसपी ओर एनसीपी.  जाहिर है कि अगर आरटीआई के तहत अगर इन पार्टिओं को ये बताना पडा कि ये अग्यात स्रोत क्या हैं तो इन दलों की तो नानी ही मर जायेगी. इसलिए सब दल साथ आये कानून को बदलने के लिए. यानि जनता को ये जानने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि हमारे दलों को कौन पैसा देता है?

जिस तीसरे मुद्दे पर सारे दल एक हुए हैं वो है सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति.अब तक ये नियुक्ति एक कोलेजिअम सिस्टम के तहत सुप्रीम कोर्ट ही करता रहा है. अब सरकार चाहती है कि जजों की नियुक्ति में उसका भी हाथ हो सो सरकार इसके लिए नया क़ानून लाना चाहती है. इस पर भी सारे दल एक साथ आ गए है.

इन तीनों ही मामलों में एक बात साफ़ हैं कि ये पार्टियां भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण के विरोध में लिए कितनी ही बड़ी बड़ी बातें क्यों न करें असल में कुछ करना नहीं चाहतीं, और जब सुप्रीम कोर्ट कुछ करता हैं तो ये कानून ही बदल देतीं हैं.और तो और अब इन्होने ठान लिया हैं कि ये जजों की नियुक्ति भी खुद ही करेंगे ताकि अदालतें ऐसे फैसले ही न दे पायें जिनसे नेताओं के हितों को चोट पहुँचती हो. वाह रे लोकतंत्र ! अब चोर ही कोतवाल हुआ जाता है.

इन तीनों ही मुद्दों से ये बिलकुल स्पष्ट हो गया कि चाहे वो पक्ष हो या विपक्ष सब एक हैं. हमाम में सब नंगे हैं. जनता को एक ही सन्देश नेताओं और दलों ने मिलकर दिया है जब हमारे हितों की बात आयेगी हम एक होंगे. केस भी हमारा होगा और फैसला भी हम करेंगे. सुप्रीम कोर्ट कुछ भी फैसला दे, जनता कुछ भी कहे हमें लोकलाज का कोई डर नहीं. सच ही है जब सैयाँ भये कोतवाल तो डर कहे का ?

उमेश उपाध्याय
25 सितम्बर 2013