Sunday, April 27, 2014

#Elections2014 “जो तटस्थ थे इतिहास लिखेगा उनकी भी अपराध कथा”




“राष्ट्र चिंतन” को एक साल हो गया। जो साल गया वो कई मायनों में अद्भुत था। इसमें जो हुआ उसके पदचिन्ह आने वाली कई पीढ़ियों तक स्मृतिपटल पर रहेंगे। इस दौरान हमने समाज जीवन के हर उस पहलू को छूने की कोशिश की जो आम हिन्दुस्तानी पर असर डालता है। क्रिकेट से लेकर राजनीति, अर्थतन्त्र से लेकर सिनेमा और शिक्षा से लेकर नकसलवाद/आतंकवाद - सब हमारे जीवन को स्पर्श करते रहे हैं। राष्ट्र  चिंतन में अपने लेखों में हमने उन सबको समेटने की कोशिश की। उनपर अपने नज़रिये से लिखने की कोशिश की। 

हम राष्ट्र चिंतन की तटस्थता का दावा नही करते क्योंकि जीवन के दुर्धर्ष समर में किनारे बैठ सिर्फ नज़ारे लेने की कोई जगह नही होती। आप भीष्म नही हो सकते। द्रौपदी की तरह राष्ट्र के भविष्य से खिलवाड़ हो रहा हो तो आप “पितामह” की तरह खोखली निष्ठाओं की आड़ नहीं ले सकते। इसलिए अपनी चुनी हुई कर्मभूमि में अपना दायित्व निभाना आपका धर्म है। उससे आप भाग नही सकते। एक सोचने वाले की ज़िम्मेदारी है कि देश के सामने आने वाले मुद्दों पर वह गहराई से अध्ययन करे, मनन करें , चिंतन करे और फिर बिलकुल बेबाकी से उसको सामने रखे। बेबाकीपन से कोई समझौता नही किया जा सकता। 

यहाँ कई बार संतुलन का सवाल आता है मगर हमारा मानना है कि तथष्टता और संतुलन सच के सामने बौने होते हैं। हाँ सच लोक कल्याण के लिए हो, यह ज़रूरी है। मगर सच की व्याख्या करते हुए हवा के रुख और सिर्फ लोकरुचि की चिंता नही की जा सकती। वहाँ आवश्यक है कि आप राष्ट्र के दूरगामी हितों पर नज़र डालें। अगर आपने ऐसा नहीं किया तो यह अपने धर्म से भागना होगा। आज की चुनौतियों की चर्चा करें तो सारी समस्याओं को तीन मुख्य बिन्दुओं में समेटा जा सकता है।  आज तीन मूलभूत मुद्दे देश और समाज के सामने हैं। वे है, पहला सुरक्षा, दूसरा विकास विकास और तीसरा पर्यावरण की संभाल। 

देश की सुरक्षा पर गहरे संकट हैं। ये संकट बाहरी और आंतरिक दोनों हैं। जंगलों में अपनी पैठ बना चुका नकसलवाद अब शहरी ठिकानों की तलाश में है। वह शहरों में अपनी विश्वशनीयता और साख बनाने के उपक्रम खोज रहा है। सीमा पार से प्रेरित आतंकवाद भी एक बड़ा खतरा है। सीमा पार से चीन और पाकिस्तान हमारे लगातार बने रहने वाले सिरदर्द हैं। ऐसे में हमारी नौसेना में एक के बाद एक होने वाले हादसे किसी षड्यंत्र का आभास देते हैं। इसी तरह एक के बाद एक हमारे कई रक्षा वैज्ञानिको की अचानक मौत भी परेशानी का एक बड़ा सबब है। थल सेना में भी उपर के स्तर पर लगातार खिचखिच रही। कभी सेनाध्यक्ष की उम्र का विवाद और कभी सेना की तथाकथित तैनाती की लीक हुई खबरें। इन सबके बीच ऐसा लगा कि कोई ध्यान देने वाला ही नहीं है। नेतृत्व का नितांत अभाव।  कुल मिलाकर देश की सुरक्षा के प्रति गंभीरता की कमी है। यह एक बड़ी समस्या है क्योंकि असुरक्षित राष्ट्र कुछ भी नहीं कर सकता। 

कुछ साल पहले जब भी भारत की चर्चा होती थी तो कुछ शब्द उनमें आम रहते थे। जैसे कि विश्व शक्ति का स्व्पन, साफ्टवेयर शक्ति,  विकास दर, चीन से होड, विश्व की आर्थिक ताकत इत्यादि। लेकिन पिछले कोई चार साल में चर्चा के विषय बदल गए। अब बात होती है तो कुछ शब्द लगातार दोहराए जाते हैं। वे हैं – मंदी, बेरोजगारी, रुपए का गिरता मूल्य, भ्रष्टाचार, घोटाले आदि। ये आशा का माहौल क्यों आज निराशा में बदल गया? क्यों देश के ज़्यादातर यूनिवेर्सिटी और कॉलेजों में अब प्लैस्मेंट नहीं हो रहे? क्यों हमारे नौजवान और युवतियाँ इंजीनियरिंग और एमबीए जैसे कोर्स करने के बाद सिर्फ आठ दस हज़ार की तेल साबुन बेचने की नौकरियाँ ही पा रहे हैं? नए कारखाने लग नहीं रहे, पुराने बंद हो रहे हैं। देश के व्यवसायी बाहर भाग रहे हैं। देश को विकास चाहिए। देश में विकास का उपयुक्त वातावरण बनाना ताकि यहाँ कि उध्यमिता फले फूले बड़ा ज़रूरी हो गया है।पिछले एक साल में यह वातावरण और खराब हुआ है।

तीसरा मुद्दा हमारे भविष्य और हमारे बच्चों से जुड़ा है। ये है विकास के साथ पर्यावरण की चिंता। फिलहाल इस तरफ समाज का ध्यान नहीं है। देश के किसी भी नए विकसित शहर में चले जाइए, वातावरण को आप प्रदूषित ही पाएंगे। आपको ये शिकायत भी मिलेगी कि ये और खराब होता जा रहा है। बच्चे बीमार हो रहे हैं। मौसम के चक्र गड़बड़ा गए हैं। नियम कायदे बने हैं मगर हर जगह वह सिर्फ फाइलों की शान ही बने हुए हैं। पर्यावरण पर सम्मेलन, एनजीओ की एक बड़ी बारात – सब कुछ है मगर कुछ भी नहीं हो रहा। इसके इस स्तम्भ में हमने बार बार लिखा है कि कुछ भ्रष्ट अफसरों-नेताओं-व्यवसायियों की तिकड़ी पूरे राष्ट्र की सेहत के साथ खिलवाड़ में लगी हुई है। इसके लिए ज़रूरी है नीतियों का सख्त पालन।  

समाज में निराशाजनक परिस्थितियों के कारण एक गुस्सा है। गुस्सा एक हथियार भी है बन सकता है और एक गंभीर बीमारी भी। हथियार ये तब होता है जब आपको यह अपनी परिस्थिति बदलने के लिए प्रेरित करता है। ये आप में जोश और और उत्साह देता है। इससे गति मिलती है। मगर जब कोई इस गुस्से का इस्तेमाल करने लगे कुछ ऐसी परिस्थितियों के निर्माण के लिए जिससे अराजकता पैदा हो जाये तो हालत खतरनाक हो सकते हैं। कुछ ऐसी ही परिसतिथियों का निर्माण करने की कोशिश देश में हो रही है। जंगल में पनपे हिंसक माओवाद के पौधे को अब शहर में रोपने की तयारी की जा रही है। बदलाव का सपना लिए उठा एक आंदोलन उसका औज़ार बन गया है। इसलिए अब आप चुप नहीं रह  सकते। क्योंकि “जो तटस्थ थे इतिहास लिखेगा उनकी भी अपराध कथा”। 



उमेश उपाध्याय
30 मार्च 14

                                                           

#Elections2014 #MuslimVotes चुनाव 2014 और मुसलमान




“सर इस बार मैंने और मेरे कुनबे के 36 लोगों ने बीजेपी को वोट दिया है। हमेशा से ही हम कॉंग्रेस को वोट देते रहे हैं। मगर इस बार जी खट्टा हो गया। सोचा इस मोदी को भी मौका देकर देखें।“ ये बताते हुए तकरीबन 35 उम्र के दिलनवाज़ के चेहरे पर कोई खास भाव नहीं थे। मैंने उसे थोड़ा उकसाया और कहा कि “लोग इल्ज़ाम लगाते हैं कि मोदी ने तो गुजरात में दंगे कराये थे?” तो वो बोला “साहब दंगे कौन नहीं कराता? हर पार्टी इसकी कुसूरवार रही है तो सिर्फ मोदी पर ही निशाना क्यों? और फिर हम दिल्ली के लाड़ोसराय इलाके में बिलकुल ठीक कुतुबमीनार के अहाते में पीढ़ियों से रह रहे हैं। दिल्ली में कोई दंगे कराएगा तो हम उसे देख लेंगे। किसी की हिम्मत नही होगी।” ये कहते हुए उसकी आँखों में गज़ब का विश्वास था। दिलनवाज़ ने मुझसे कहा कि अब मुल्क थोड़ी सख्ती की ज़रूरत है। हमने 60 साल कॉंग्रेस को बरता है। 60 महीने मोदी को भी देकर देख लेते हैं। देखें तो सही कि वो गुजरात जैसा विकास क्या देश में भी कर सकते हैं या नहीं? उसने ये भी बताया कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में उसने कॉंग्रेस को ही वोट दिया था। 

आमतौर से वोट बैंक की राजनीति के आदी होने के बाद एक दिल्ली के एक युवा मुसलमान टॅक्सी चालक से इतनी सीधी और सपाट बातें सुनकर मुझे एक झटका सा लगा।सोचने लगा कि धारणा के विपरीत एक मुसलमान युवक क्यों बीजेपी को वोट दे रहा है। क्या ये राजनीति में किसी बदलाव का संकेत है या एकाकी घटना? वैसे अगर बदलाव की बात करें तो आज बदलाव की प्रतीक बनी आम आदमी पार्टी यानि “आप” के बारे में मुसलमान मतदाता क्या सोचता है ये भी मैंने जानने की कोशिश की। 

मौलाना मकसूद उल हसन काजमी जो आल इंडिया इमाम काउंसिल के अध्यक्ष भी है। “आप” से खासे नाराज़ दिखाई दिये। बहुत ज़ोर से बोले कि “आप से हमें बहुत उम्मीदें थी कि ये नए तरह की पॉलिटिक्स करेगी और आज के पैटर्न को बदलेगी। इसलिए ये सोचा था कि मुस्लिम बहुल इलाकों से हिन्दू और हिन्दू बहुल इलाकों से मुसलमान कैंडीडेट खड़े किए जाएँगे।“ जानकारी के लिए मौलाना साहब “आप” के गठन के समय जो 22 सदस्यीय समिति बनी थी उसके मेम्बर थे। वे पार्टी की राष्ट्रिय काउंसिल के सदस्य भी थे। उन्होने दुख जताया कि “ “आप” भी उसी जंजाल में फंस गई जिसमें पुरानी पार्टियां उलझी हुई हैं। मसलन आशुतोष को चाँदनी चौक से टिकट इसलिए दिया गया क्योंकि वह बनिया है। रामपुर से मुसलमान को टिकट दिया गया”। मौलाना मकसूद उल काजमी के मुताबिक “मुसलमान ठगा महसूस कर रहा है। वह कन्फूयज्ड है।“ 

मुसलमानों का ये भ्रम कोई आज का नहीं। कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के हरदोई ज़िले के रहने वाले एक सफल मुसलमान युवक ने पॉलिटिक्स में जाने की इच्छा व्यक्त की थी । लिखने पढ़ने वाला प्रगतिशील युवक है, नई सोच है-खूब जोश भी है। मगर उसका भ्रम कि वो कहाँ जाये? बीजेपी में जाने से मुस्लिम समाज में एक ठप्पा लग जाता है, कॉंग्रेस को वो इस काबिल नहीं समझता, समाजवादी और बसपा जैसी पार्टियां जाति के गोरखधंधे से बाहर नहीं आ पा रहीं। रास्ता नहीं मिल रहा सो वह आज तक तय नहीं कर पाया कि जाए तो जाए कहाँ? उसका परिणाम ये है कि मुसलमानों कि राजनीति ऐसे मजहबी लोगों के बीच फंसी हुई है जिनकी सोच अठारहवीं शताब्दी की है । उसका मध्यम वर्गीय तबका उभर ही नहीं पा रहा। सो उसके नेता कौन हैं- आज़म खान, अबु आज़मी और अकबरुद्दीन ओवेसी आदि। 

क्या ये नेता मुस्लिम मध्यवर्ग की आकांक्षाओं, सपनों और उसकी हकीकत का प्रतिनिधित्व कर सकते है? संभवतः नहीं। उन युवक युवतियों को भी वही चाहिए जो उनकी उम्र के हर हिन्दुस्तानी की ख़्वाहिश होती है मसलन – पढ़ाई, अच्छी नौकरी, कार, बेहतर मकान यानि एक बढ़िया जीवन शैली। मगर उनकी राजनीति उर्दू, वक्फ बोर्ड, हज सबसिडी, तथाकथित भय, अयोध्या, गुजरात के दंगे, मंदिर-मस्जिद आदि के मकडजाल से बाहर ही नहीं आ पा रही। ये इन नेताओं को रास भी आता है क्योंकि ऐसा करने से उनकी जवाबदारी खत्म जो हो जाती हैं। और सिर्फ सांकेतिक बातों से उनका काम चल जाता है। भावनात्मक मुद्दे उठाना और इफ्तार की पार्टी देने से आगे उन्हे बढ्ने की ज़रूरत ही नहीं दिखाई देती। इस माने में “आप” से उनका मोह टूटना एक तकलीफदेह बात है। 

दिलनवाज़ का अपने कुनबे के साथ भाजपा को वोट देना अकेला वाकया है या फिर पूरे समाज की ओर से एक संकेत, आज नही बताया जा सकता। लेकिन अगर ऐसा हुआ कि मुस्लिम समाज के एक तबके ने भी बीजेपी को वोट दिया होगा तो भारतीय राजनीति में ये एक नई शुरुआत हो सकती है। एक दूसरे की तरफ हमेशा शंका, भय और नफ़रत से देखने वाले अगर करीब आते है तो मोदीमय इस चुनाव का ये एक बड़ा अजूबा हो सकता है। ऐसा हुआ तो यह एक अच्छी बात होगी क्योंकि फिर देश की राजनीति मजहब की संकरी गलियों को छोड़कर विकास के हाइवे को पकड़ लेगी। ये देश के लिए अच्छा ही होगा।   


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उमेश उपाध्याय
15 अप्रेल 2014

#EC चुनाव आयोग या "सुपर सरकार"




हर साल देश के राज्यों में शराब के ठेकों के लाइसेंस दिये जाते हैं। राज्यों के आबकारी विभाग एक प्रक्रिया के तहत इन्हें जारी करते हैं। राज्यों का बहुत बड़ा राजस्व शराब की बिक्री से आता है। मगर इस साल ये मामला चुनाव आयोग के पास पहुँच गया। अब सोचिए चुनाव आयोग ये तय करेगा कि दारू के ठेके दिये जाएँ या नहीं? मगर हुआ ऐसा ही। चुनाव आचार संहिता के कारण राज्यों ने ये मामला ठेल दिया चुनाव आयोग के पास और आयोग ने 31 मार्च को एक आदेश जारी करके कहा कि राज्य सरकारें शराब के ठेकों की नीलामी कर सकती है। और तो और भारतीय रिजर्व बैंक नए बैंकों को लाइसेंस दे कि नहीं ये मामला भी आयोग के पास गया और उसने “तय किया” कि आरबीआई ऐसा कर सकता है ! 

उत्तर प्रदेश में चुनाव आयोग ने बसपा की नेता मायावती द्वारा बनवाए गए हाथियों की मूर्तियों को ढकने का आदेश दिया था क्योंकि हाथी बसपा का चुनाव चिन्ह है। मगर अभी किसीने मुझसे पूंछा की चुनाव आयोग प्रदेश भर की साइकिलों का क्या करेगा? क्योंकि साइकिल समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह है? चलो साइकिल को तो उठाकर घर में बंद करने का आदेश दिया भी जा सकता है मगर वो हाथ का क्या करेगा? हाथ तो कॉंग्रेस का चुनाव चिन्ह है। क्या सारे नागरिकों को दस्ताने दिये जाएँगे ताकि वे चुनाव होने तक उन्हें पहनकर चलें। नहीं तो इससे कॉंग्रेस को फायदा पहुँच सकता है !!! बात हंसी की लगती है मगर इतनी हास्यास्पद भी नहीं क्योंकि मौजूदा आम चुनाव में आयोग के कई फैसले उन दायरों से बाहर के हैं जो आमतौर से उसके अधिकार क्षेत्र में आते हैं।

भारतीय जनता पार्टी का चुनाव घोषणापत्र कब जारी होगा और इसे मीडिया कवरेज मिले या न मिले इस पर चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर खूब टीका टिप्पड़ी हुई। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने तो इस पर ट्वीट कर के उन टीवी संपादकों पर सवाल भी उठाए जिन्होने घोषणापत्र के कार्यक्रम को कवरेज दी थी। उधर कुछ अफसरों के ट्रान्सफर को लेकर चुनाव आयोग और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी में भी तनातनी हुई। आखिरकार ममता मानी और वहाँ चुनाव आयोग की चली। यहाँ तक तो ठीक मगर कुछ उदाहरण अगर देखें जाएँ तो लगता है की आयोग के कामकाज, रवैये और कार्यक्षेत्र को लेकर बड़ा भ्रम है। इसे ठीक होना चाहिए।

सवाल है कि चुनाव आचार संहिता का उद्देश्य क्या है? इसका मकसद है कि सत्तारूढ़ दल कोई ऐसे फैसले नहीं ले जिसका फायदा उसे चुनावों में मिले। यानि हर दल और प्रत्याशी के लिए मामला बराबरी का हो। न कि सत्तासीन पार्टी सरकारी पैसे और पद का उपयोग करके मतदाताओं को प्रभावित करे। देश का संविधान और कानून चुनाव आयोग को अधिकार देता है कि वह "स्वतंत्र और निष्पक्ष" चुनाव कराने के लिए उपयुक्त कदम उठाए। 

साथ ही यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि ये व्यवस्था नहीं है कि आयोग एक "सुपर सरकार" के तौर पर काम करेगा।  ऐसा नहीं कि चुनाव के समय देश का कामकाज ही रुक जाये और हर मामला चुनाव आयोग के पास जाये। चुनाव का मतलब देश का रुकना नहीं हो सकता। अभी बिजली की कीमतों और गैस की कीमतों के बारे कुछ ऐसा ही हुआ। लेकिन सारी गलती क्या चुनाव आयोग की है? यह भी तो हुआ है कि सरकारी अफसरों ने चुनाव आयोग को ढाल बना लिया है और हर उस फैसले को जो वो लेना नहीं चाहते वे आयोग के पास भेज देते हैं। एक उदाहरण काफी होगा। 

रक्षा मंत्रालय को देश के जवानों के लिए 6400 मीट्रिक टन खाने का तेल खरीदना था। इसके लिए जनवरी में टेंडर भी हो चुके थे। अब सिर्फ तेल सप्लाई होना था।  अब सोचिए कि इस मामले का चुनाव आयोग से क्या लेना देना। मगर डर के मारे या फिर “कौन चक्कर में पड़े” इस सोच के कारण रक्षा सचिव ने चुनाव आयोग से इसकी “इजाज़त मांगी”। उसके बाद चुनाव आयोग ने चिट्ठी निकाली कि जो भी रोज़मर्रा के काम हैं उसके लिए आयोग के पास आने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन चुनाव आचार संहिता को लेकर जो अस्पष्टता और भ्रम की स्थिति बनी हुई है उसे ठीक करने की ज़रूरत है।


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उमेश उपाध्याय
9 अप्रेल 14