Saturday, December 12, 2015

सलमान को संदेह का लाभ क्योँ !!! #SalmanKhan #BeingHuman

13 साल पहले फुटपाथ पर सोया हुआ नूरुल्लाह कार से कुचल कर मार दिया गया। चार अन्य लोग भी घायल हो गए।  इस मामले में मुंबई हाई कोर्ट ने सिने स्टार  सलमान खान को संदेह का लाभ देते हुए हर आरोप से बरी कर दिया। निचली अदालत ने हालांकि सात महीने पहले सलमान खान को सभी धाराओं में दोषी मानते हुए उन्हें पांच साल की सजा सुनाई थी।  अब हाई कोर्ट का कहना है कि सलमान के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं और उन्हें संदेह का लाभ देते हुए हर आरोप से बरी किया जाता है। 

 कानूनी नुक्ताचीनी में जाए बगैर सिर्फ एक ही सवाल यहाँ हाई कोर्ट से पूंछा जाना ज़रूरी है कि न्याय का मायने क्या हैयह  मुकदमा सलमान के इर्दगिर्द ही क्यों घूमा ? सवाल तो एक बेगुनाह की मौत का है।  अदालत ने यह जानने और बताने की ज़रुरत क्यों नहीं समझी कि आखिर नूरुल्लाह को जिस गाड़ी ने कुचल कर मार दिया उसे कौन चला रहा  था ? क्या इन्साफ का मकसद एक मुक़दमे का निपटान है या फिर ये पता करना कि एक बेक़सूर की हत्या का ज़िम्मेदार कौन है? ऊंची अदालत को तो इस सवाल पर गौर करना ज़रूरी था।
निचली अदालत ने माना था कि सलमान खुद कार चला रहे थे और उन्होंने शराब पी रखी थी।  इस बात की गवाही इस पूरे मामले के मुख्य गवाह कांस्टेबल रवींद्र पाटिल ने दी थी।  रवींद्र पाटिल  वी आई पी सुरक्षा में लगे कमांडो थे और उस रात सलमान के बॉडीगार्ड के नाते उस कार में मौजूद थे जिस कार से ये हादसा हुआ।  हादसे के फ़ौरन बाद सलमान तो मौकाए वारदात से रहस्यमय तरीके से गायब हो गए मगर एक ज़िम्मेदार पुलिसकर्मी  और नागरिक होने के नाते रवींद्र पाटिल ने बांद्रा पुलिस थाने जाकर बयान दिया। उनके बयान के आधार पर ही एफ आई आर लिखी गयी और सलमान पर मुक़दमा चला।
 बताया जाता है की रवींद्र पाटिल पर गहरा दवाब था कि वे अपना बयान बदलें।  पर सतारा के एक गरीब परिवार से आये रवींद्र ने अपना बयान नहीं बदला और उन्हींके बयान के आधार पर निचली अदालत ने सलमान को दोषी करार फिया।  लेकिन वक़्त का सितम देखिये दवाब, मानसिक तनाव और टीबी के कारण रवींद्र पाटिल की 2007 में मौत हो गयी।  सलमान को हाई कोर्ट द्वारा बरी किये जाने के बाद रवींद्र पाटिल की माँ का बयान मर्मस्पर्शी है "न्याय सिर्फ अमीरों को मिलता है गरीब लोगों को न्याय नहीं मिलता।" रवींद्र की माँ  ने एक अखबार को ये भी बताया कि "अगर उस रात मेरा बेटा ड्यूटी पर नहीं होता और ये एक्सीडेंट नहीं हुआ होता तो आज वह ज़िंदा होता।"
 न्याय होना जितना ज़रूरी है, उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है न्याय होते हुए दिखाई देना।  सलमान खान के मामले में मुंबई हाईकोर्ट के फैसले में ऐसा होता दिखाई नहीं दिया। यहाँ ये बिलकुल भी  महत्वपूर्ण नहीं  है कि सलमान के साथ क्या हुआ। महत्वपूर्ण ये है कि एक आम भारतीय नागरिक नूरुल्लाह शरीफ  जिसे एक कार ने सोते हुए कुचल दिया को इन्साफ नहीं मिला।  इसी तरह एक पुलिस कमांडो रवींद्र पाटिल जिसने तमाम दवाबों के एक बड़ी हस्ती के खिलाफ गवाही  देने की हिम्मत दिखाई, उसके परिवार को भी इस फैसले से निराशा हाथ लगी।
 अफ़सोस है कि इस मामले में जिसकी मौत हुई वह नहीं बल्कि सलमान  खान ही केंद्र में रहे।  इससे लोगों में   ये सन्देश भी गया कि अगर आप बड़े रसूख वाले हैं और आपके पास पैसा है तो आप बड़े वकीलों को खड़े कर  ' संदेह का लाभ' ले सकते हैं।  सचाई क्या है हम नहीं जानते पर एक मौत के बावजूद उसके ज़िम्मेदार को सज़ा नहीं मिलना क्या हमारे पूरे न्याय तंत्र और उसकी प्रक्रिया को कठघरे  में नहीं खड़ा करता ?
 उमेश उपाध्याय12 दिसंबर 2015
   

Wednesday, November 25, 2015

आमिर खान और सहिष्णुता/असहिष्णुता का राजनीतिक दंगल #ToleranceHypocrisy


सिनेस्टार आमिर खान ने अब जो स्पष्टीकरण भी दिया है उसमें भी उन्होंने कहा है कि उनकी आलोचना 
करके लोग यही सिद्ध कर रहे हैं कि उन्होंने जो कहा था वह कितना सही है। वैसे सहिष्णुता का तकाज़ा तो 
यह है कि जैसे आमिर खान को अपनी पत्नी के कहे को जनता में बताने का अधिकार है उसी तरह लोगों को  
भी ये हक़ है  कि वे उसकी आलोचना कर सकें। ये बात सही है कि आलोचना तर्कसंगत, मर्यादित और 
शिष्ट होनी चाहिए।  सोशल मीडिया पर कई बार लोग अशिष्ट होते हैं ये बिलकुल सच है। मगर इसके 
शिकार अकेले आमिर खान ही नहीं हैं। सार्वजनिक जीवन में रहने वाले लगभग सभी लोग ऐसे आक्रमण 
झेलते हैं तो आमिर कोई इसके अपवाद नहीं है।
लेकिन मूल बात है कि आमिर ने ये कहा कि उनकी पत्नी आशंकित हैं कि भारत रहने लायक नहीं रहा। बेहतर 
होता कि आमिर इस आशंका के कारणों का खुलासा करते। बताते कि किन कारणों से उनका परिवार देश 
छोड़ने की बात कर रहा है। वे एक संजीदा सख्शियत हैं। सिर्फ एक बयान देकर - ऐसा बयान जिससे देश 
अपमानित होता हो - बचकर नहीं निकल सकते। पिछले छह - आठ महीने में ऐसा क्या हुआ है की उनके 
परिवार के लोग इस देश को रहने लायक नहीं समझते। ऐसा क्या हुआ है जो पहले नहीं हुआ या होता था? 
क्या उन जैसी सेलेब्रिटी का ये दायित्व नहीं है कि वे पूरा समझाएं और उदहारण दें कि वे और उनका परिवार 
डरे क्यों?
उम्मीद थी कि जब वे स्पष्टीकरण देंगे तो साफगोई से इन बातों का खुलासा करेंगे। देश में 
सहिष्णुता/असहिष्णुता का जो हल्ला मच रहा है, मुझे लगता है कि वह राजनीतिक ज़्यादा है। मोदी सरकार
के राजनीतिक विरोधियों को यह अधिकार है कि वे इस तरह के सवाल उठाएं और उनके वैचारुिक समर्थक 
इस हल्लेपर चिल्लपों मचाने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन ये भी मालूम होना चाहिए कि यह हल्ला मचाने वाले 
लोग ज़्यादातर वो हैं जो देश के सत्ता प्रतिष्ठान के नज़दीकी रहे हैं और उसका पूरा लाभ उठाते रहे हैं। देश के 
साहित्यिक, सामजिक, अकादमिक आदि क्षेत्रों में ऐसा आज़ादी के बाद से होता आया है। जिस तरह से इनको 
विरोध का हक़ है उसी तरह मोदी सरकार को अधिकार है कि वह अपनी नीतियों को लागू करे और महत्वपूर्ण 
पदों पर उन लोगों को नियुक्त करे जो नयी सरकार की नीतियों को लागू कर सकें।
सहिष्णुता/असहिष्णुता की राजनीतिक कुश्ती एकतरफा तो नहीं हो सकतीं। और जब आमिर इसमें कूदे हैं 
तो फिर वे आलोचना पर शिकायत क्यों कर रहे हैं? यह भी तो सही है कि आमिर राजनीतिक तौर पर इस 
सरकार और प्रधानमंत्री के विरोधी हैं। 24 मार्च 2005 को एक वामपंथी संगठन ने श्री मोदी को अमरीकी 
वीसा के सवाल पर एक सार्वजनिक वक्तव्य जारी किया था जिसमें श्री मोदी की तुलना हिटलर से की गयी 
थी। आमिर खान उस बयान पर दस्तखत करने वाले पहले व्यक्ति थे। ये बयान आज भी इस लिंक पर 
उपलब्ध है - http://www.sacw.net/DC/CommunalismC...
आमिर को यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्या वे इस बयान पर आज भी कायम हैं। और अगर हैं तो फिर उनकी 
ताज़ा बयान का सन्दर्भ बिलकुल साफ़ हो जाता है। फिर उनकी बात बात पूरी तरह से राजनीतिक है। तो 
फिर हर तरह की आलोचना के लिए तैयार रहना चाहिए। अगर वे बयान राजनीतिक विरोधियों की तरह 
देंगे तो उन्हें अपने प्रति दूसरे बर्ताव की उम्मीद क्यों होनी चाहिए?
आमिर को मालूम होना चाहिए कि देश छोड़ने की सोच आने वाला बयान कोई मामूली बात नहीं। वे तो देश के सिरमौर लोगों में से एक हैं। जिन्हें देश के करोंडो लोगों ने सर पर बिठाया है। एक बड़े स्टार के रूप में एक तरह से उनकी पूजा की है। फिर वे अगर इस तरह का बयान देंगे जिससे देश की प्रतिष्ठा खराब होती हो तो लोगों को 
कष्ट तो होगा ही। उनसे लोगों की अपेक्षा होती है कि वे ज़िम्मेदारी से बात करें और ऐसी बात तो ना करें 
जिससे देश छवि दुनिया में बिगड़े।

उमेश उपाध्याय
25 नवंबर 2015

Wednesday, September 16, 2015

Monday, September 7, 2015

भारत-पाक : युद्ध से डरना कैसा ? #IndoPak #IndiaPakistan



पाकिस्तान की विदेश नीति का मूल मंत्र है दुनिया, खासकर भारत को लगातार लड़ाई का भय दिखाना. एक तरफ दुनिया की बड़ी ताकतों को आतंकवाद का डर दिखाकर पाकिस्तान के हुक्मरान उनसे आर्थिक मदद लेते हैं और दूसरी तरफ भारत को न्यूक्लियर युद्ध की धौंस देकर सीमापार से आतंकवाद फैलाते है. भारत के खिलाफ आतंकवाद को बढ़ावा देना और दबाव बढ़ने पर परमाणु युद्ध की धमकी देना पाकिस्तान की ऐसी पालिसी है जिसका तोड़ निकालना हिन्दुस्तान की सुरक्षा के लिए  बेहद ज़रूरी है. एक बात साफ़ है कि जो युद्ध से डरते हैं उन्हें भी युद्ध का सामना करना ही पड़ता है. ताकत के बल पर स्थापित मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में स्थायी शांति के लिए युद्ध के डर को जीतना ज़रूरी है.

पाकिस्तान की सीमापार आतंकवाद की नीति से निपटने के लिए भारत ‘कभी नरम और कभी गरम’ की पालिसी अपनाता रहा है. देश के बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने पिछले कोई तीन दशक में पाकिस्तान के उग्र तेवरों का जवाब “पीपुल टू पीपुल कोंटेक्ट” यानि दोनों देशों की जनता के बीच संपर्क बढ़ाने से दिया है. इसी के तहत “ अमन की आशा” और “ट्रैक 2” जैसे नुस्खे अमल में लाए गए हैं. इनके पीछे की मंशा रही है कि पाकिस्तान की सिविल सोसायटी का दबाव पाकिस्तान के हुक्मरानों पर पड़ेगा और वे अपनी नीतिओं में बदल करेंगे. मगर क्या ये उम्मीद्द वास्तविक है? अभी तक के रिकार्ड से तो इसका उल्टा ही लगता है. कारगिल की लड़ाई इसका जीता जागता उदाहरण है. उस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी की भलमनसाहत और “अमन की उम्मीद” जैसे नेक ख्यालों के बीच पाकिस्तान की सेना ने कारगिल की साज़िश रची थी. किसी देश की विदेश ओर रक्षा नीतियां शान्ति की उम्मीद और उससे पैदा हुई कोमल  
भावनाओँ के आधार पर निर्धारित नहीं होतीं. ये वास्तविकता की जमीन पर जिन्दगी कि कड़वी सच्चाईयों के धरातल पर बनाई जाती हैं. जो मुल्क इस सच्चाई से मुंह मोड़ता  है उसे इतिहास माफ नहीं करता. पंचशील का सिद्धान्त 1962 कि लड़ाई को नहीं रोक सका था और न ही वाजपेई की लाहौर यात्रा कारगिल के युद्ध को रोक पाई थी. यह एक कटु सत्य है .
इसलिए युद्ध रोकने का उपाय शांति की कामना नहीं बल्कि युद्ध कि सतत तैयारी और शक्ति की पूजा है. जो देश लगातार युद्ध के लिए तैयार रहता है शांति भी उसी को  प्राप्त होती है . भारत–पाक सम्बंधो में तो ये बात और अधिक गंभीरता से लागू होती है. पिछले कुछ हफ़्तों में पाकिस्तान से युद्ध कि धमकियां लगातार आ रहीं हैं .पाकिस्तान सरकार और सेना ने बार बार कहा है कि युद्ध की स्तिथि में वह परमाणु हथियारोंका इस्तेमाल भी कर सकता  है . एक रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान “लो इंटेंसिटी नयूक्लेअर डिवाइस” यानि छोटे छोटे परमाणु बम बना रहा है. अब इनका डर दिखाकर पाकिस्तान बार बार चुनौती दे रहा है कि भारत ने उसके खिलाफ कोई कदम उठाया तो वह परमाणु हथियारों का भी इस्तेमाल करने से नहीं चूकेगा. मतलब ये कि पाकिस्तान की शह और मदद से और उसकी ज़मीन सेआतंकवादी यहाँ कत्लोगारत करते रहें. हिन्दुस्तान अगर इनका इलाज़ करने की कोशिश करे तो परमाणु युद्ध की भभकी.

इस परमाणु धमकी का इलाज ज़रूरी है. नहीं तो कसाब, नवीद और सज्जाद जैसे आतंकवादी हमारे यहाँ खूनी खेल खेलते रहेंगे. उनके आका पाकिस्तान में बैठकर खुले आम भारत के खिलाफ फौज और आई एस आई की मदद से ऐसे नए नए आतंकी तैयार करके कभी मुंबई पर हमले करेंगे, कभी गुरदासपुर में लोगों को मारेंगे, कभी कश्मीर में कोहराम मचाएंगे तो कभी हमारी संसद को निशाना बनायेंगे. ये सही है कि भारत ने नीति के तहत यह घोषित किया है कि वह “परमाणु हथियारों का पहला इस्तेमाल “नहीं करेगा. गौरतलब है कि पाकिस्तान नें अभी तक ऐसा नहीं कहा है. वह ऐसा घोषित क्र भी दे तो क्या गारन्टी है कि वह उसका पालन करेगा ? पर क्या हमें इससे डर जाना चाहिए?

पाकिस्तान की परमाणु युद्ध कि धमकी को हम उसे “आतंकवाद फैलाने के लाइसेंस“ के तौर पर इस्तेमाल नहीं करने दे सकते. इसका उपाय क्या है ? क्या फिर हम “अमन की आशा” जैसे नारों का सहारा लें ? या फिर सोंचें कि कभी न कभी तो पाकिस्तान के हुक्मरानों खासकर सेना और आई एस आई को अक्ल आयेगी और वह अपनी नीतियों में बदलाव करेगा. उसके आचरण से तो ऐसा लगता नहीं है. तो फिर भारत को ही उसकी अक्ल को ठिकाने लगाने का इंतजाम करना पड़ेगा.

इसका एक ही उपाय है वो ये कि पाकिस्तान को बता देना कि भारत किसी भी तरह के युद्ध के लिए तैयार है. नयूक्लेअर युद्ध की धमकी से डरना नहीं बल्कि पाकिस्तान को सीधे सीधे बताना कि अगर ऐसा हुआ तो भारत को जो नुकसान होगा सो होगा, मगर पाकिस्तान तो पूरी तरह से नष्ट हो जायेगा. भारत के पास ऐसी क्षमता और योग्यता दोनों ही हैं. यह पाकिस्तान की सरकार, फौज, आई एस आई और वहां से चलाए जा रहे आतंकवादी गुटों को यकीन दिलाना जरुरी है. जिस तरह से म्यांमार के जंगलों में जाकर भारत ने कारवाई की वैसा पकिस्तान मैं भी हो सकता है इसका प्रदर्शन ज़रूरी है. पाकिस्तान के नुक्लिअर ब्लैकमेल  का जवाब ज़रूरी है.

भारत पाक के बीच शांति का आधार भारत की ताकत, लड़ाई लड़ने कि सामर्थ्य, इच्छा शक्ति और उसके हौसले  पर निर्भर करती है. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने शायद ऐसी हो परिस्थितियों के लिए लिखा था.
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो. 

#IndiaPakistan

उमेश उपाध्याय

6 सितम्बर 2015

Monday, August 31, 2015

शीना मर्डर केस: समृद्धि का अभिशाप ‪#‎WhoKilledBora‬‪ #‎murdermostfoul‬ ‪#‎SheenaBoraMurder‬

शीना मर्डर केस में हर रोज नए खुलासे हो रहे हैं। इस मामले की असलियत चाहे जो भी हो अब तक जो भी बातें सामने आईं हैं उसने समाज के अंतर्मन को अंदर तक हिलाकर रख दिया है। व्यक्तिगत जीवन में लोग कैसे भी रहें अथवा संबंध रखें ये उनका निजी मामला माना जाता है, परंतु जब आपके संबंध और उससे उठी गांठें समाज के न्यूनतम स्वीकृत दायरों को भी भींच कर रख दें तो फिर कोई भी मुद्दा व्यक्तिगत नहीं रह जाता। इस मामले में बहुत से सवाल हैं जो शायद पुलिस, अदालत और कानून के दायरे से कहीं बड़े और व्यापक हैं।

पुलिस की तहकीकात अभी जारी है और जल्दी में कोई निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं, मगर कुल मिलाकर अब तक जो बातें छन कर आईं हैं वो लालच, महत्वाकांक्षा निर्ममता, उदासीनता और रिश्तों के खोखलेपन की एक घिनौनी तस्वीर पेश करती हैं। एक ऐसी तस्वीर जो परिवार की बुनियाद पर ही प्रहार करती है। पिछले दिनों में हर सामान्य नागरिक हर व्यक्ति दूसरों से या फिर खुद से कुछ सवाल पूछता नज़र आता है। ये ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर किसी तर्क या कानूनी नुक्ते में नहीं मिल सकता।
INDRANI-MUKHERJEE
मसलन इंद्राणी मुख़र्जी के कितने पति थे या हैं? उनका बेटा मिखाइल तीन साल से चुप क्यों था? इंद्राणी वाकई क्या इतनी शातिर हैं कि अपने पूर्व पति, वर्तमान पति, बेटे, दत्तक पुत्री, पुलिस, मां-बाप सबको एक साथ खेल खिला रहीं थीं? आखिर संजीव मल्होत्रा का लालच क्या था? पीटर मुख़र्जी जैसा व्यक्ति क्या वाकई कुछ नहीं जानता? उसका बेटा राहुल जिसे कि शीना का प्रेमी बताया जा रहा है वह भी तीन साल तक कुछ बोला क्यों नहीं? इस डिजिटल दुनिया में किसी ने तीन साल तक एक लड़की को ढूंढ़ने तक की कोशिश नहीं की? अगर यहां गैर पढ़े लिखे लोगों का सवाल होता तो शायद मन मान भी जाता कि उनके पास साधन नहीं थे, मगर ये तो सब समाज के तथाकथित संभ्रांत, शिक्षित, आधुनिक और संपन्न लोग हैं, ये क्यों चुप रहे?
ये चुप्पी मन को कुरेदती है। इस अपराध के दो कारण हो सकते हैं। एक तो पैसा और दूसरा राहुल और शीना के आपसी संबंधों पर इंद्राणी की आपत्ति। वे अपने निजी जीवन में कैसी हैं उनपर टिप्पणी करने का मकसद यहां नहीं है मगर उनके संबंधों का जो इतिहास आज मीडिया में आ रहा है उससे साफ़ है कि नैतिकता और लोक मर्यादा की सामान्य परिभाषा उनपर लागू नहीं होती। इंद्राणी तो परिवार, स्त्री-पुरुष संबंधों की किसी भी सहज स्वीकृत मान्यता को मानती नज़र नहीं आतीं। राहुल न तो उनके पेटजाये हैं ना ही उनसे शीना का कोई रक्त संबंध है, तो फिर क्या राहुल और शीना के संबंधों के कारण वो हत्या जैसी साजिश रचेंगी ये बात सीधे पचती नहीं है।
तो फिर एक ही बात समझ आती है वो है निन्यानवे का फेर, यानि ये वारदात पैसे और संपत्ति के कारण हुई। यहीं मन दहल जाता है, ऐसा नहीं है कि दौलत के लिए किया गया ये पहला और आखिरी अपराध है। पैसे के लिए आदमी कई बार कुछ भी कर गुज़रता है। मगर इस मामले में रिश्तों की कड़ियां इसे अनूठा बना देती हैं। यहां मिखाइल और ड्राइवर शिवनारायण को छोड़ दिया जाए तो बाकी किरदारों का पेट गर्दन तक भरा हुआ है। फिर पैसे के लिए इतनी मारामारी? इस मामले से ये और लगता है कि हमारे समाज में भी एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है, जिसके लिए मान मर्यादा की कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है, उसका लक्ष्य है कि किसी भी तरह से बस पैसा हासिल हो जाये बस।
वैसे पैसा कमाना और जोड़ना अपने आप में कोई पाप नहीं है मगर पैसा तो किसी लक्ष्य के लिए होता है। पैसे से आप बहुत कुछ कर सकते हैं। मगर अपने आप में सिर्फ पैसा कुछ नहीं है। यानि यदि आपके पास कोई मकसद या उद्देश्य नहीं है तो फिर पैसा बस पैसे के लिए हो जाता है। इसका कोई अंत नहीं। लक्ष्यविहीन समृद्धि अपने साथ कई परेशानियां और विकार लेकर आती हैं।
इंद्राणी भी, लगता है कि इसी मायाजाल में फंसी, फिर उन्होंने सब कुछ दांव पर लगा दिया। महत्वाकांक्षा और लालच में वे सब भूल गयीं। परिवार, रिश्ते, पति और यहां तक कि अपने बच्चे भी जिन्हें उन्होंने नौ महीने तक अपनी कोख में रखा था? उनकी सारी संवेदनाएं, भाव और कोमलताएं पैसे की इस अंधी ललक में मानो तिरोहित हो गईं। एक तरह से देखा जाए तो जो समृद्धि किसी के लिए सम्मान और फ़ख्र की बात होती है वही इंद्राणी और उनसे जुड़े लोगों के लिए अभिशाप बन गई। बचपन में पढ़ा एक दोहा इस सिलसिले में याद आ गया-
" जो जल बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़ै दाम। दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम"
इसका मतलब है कि जैसे नाव में बढ़ता पानी उसे डुबो देता है उसी तरह अक्लमंद लोग पैसे का सदुपयोग करते हैं, नहीं तो घर में आया हुआ ज़्यादा धन उस घर को बर्बाद कर देता है।