Sunday, May 31, 2015

राहुल का रोमांटिक राजनीतिक ख्याल और वैचारिक संकट #RahulGandhi

युवराज राहुल गांधी ने अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानि आरएसएस पर हमला बोला है। एनएसयूआई के कार्यकर्ताओं से दिल्ली में उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी देश को आरएसएस की शाखा की तरह चलाना चाहते हैं। वैसे ये कहना मुश्किल है कि आरएसएस की शाखा और राष्ट्रवादी विचार के बारे में उन्हें कितनी जानकारियां हैं। मगर उन्हें करीब से देखने वाले पत्रकार और नेता आमतौर से उन्हें गंभीरता से न लेने की सलाह ही देते हैं।

लेकिन राहुल देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के पुश्तैनी वारिस हैं इसलिए उनकी बातों को हल्के में लिया जाना ठीक नहीं होगा। राहुल ने अपने भाषण में कहा कि आरएसएस और बीजेपी में लोकतंत्र की कमी है। ये उनका नजरिया है। मगर सवाल है कि क्या कांग्रेस में अंदरुनी लोकतंत्र है? क्या 10 जनपथ के विचार से भिन्न कोई विचार उनकी पार्टी में व्यक्त किया जा सकता है? इन बातों का उत्तर शायद ही वे या उनकी पार्टी में कोई दे पाए। तो फिर राहुल ने ऐसा क्यों कहा? इसलिए राहुल के इस भाषण की पृष्ठभूमि को देखना ज़रूरी है।

अमेठी में उनके खिलाफ चुनाव लड़ने वालीं मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने उन्हें अमेठी जाकर इससे दो दिन पहले बहस की चुनौती दी थी। यही नहीं उन्होंने अमेठी में कई योजनाओं की घोषणा भी की। कहीं ऐसा तो नहीं कि राहुल अपनी ही मांद में इस तरह की चुनौती और ललकार को पचा नहीं पाए? राहुल ने ये भी कहा कि बीजेपी देश की शिक्षा में अपनी विचारधारा थोपने की कोशिश कर रही है।

सवाल ये है कि पूर्ण बहुमत से चुनी सरकार अगर अपने विचार के आधार पर पाठ्यक्रम में बदलाव लाना चाहती है, तो राहुल को इसका राजनैतिक विरोध करने का हक़ तो है, पर इसमें गलत क्या है? क्या पिछले 68 साल में जो विचार और नजरिया पाठ्यक्रम में पढ़ाया गया उसी को अंतिम माना जाना चाहिए? उस पर जो भी सवाल उठाए उसे फासिस्ट कहना क्या लोकतांत्रिक है? क्या इतिहास, हमारी सभ्यता और संस्कृति को देखने के लिए सिर्फ और सिर्फ आंग्ल-नेहरूवादी-वाम चश्मा या नजरिया ही चलेगा? क्या लोकतंत्र की बुनियादी शर्त यह नहीं है कि हर तरह के विचारों का स्वागत किया जाना चाहिए?

लोकतंत्र में हर विचार को फलने-फूलने का अवसर मिलना ही चाहिए। यह तो सैद्धांतिक बात हुई, अगर राजनीतिक तौर से भी देखा जाए तो राहुल जिन नीतियों की वकालत कर रहे हैं उन्हें चुनाव दर चुनाव जनता ने अस्वीकार किया है।

अगर देश की जनता ने नरेंद्र मोदी को प्रचंड बहुमत से दिल्ली की गद्दी पर बिठाया है तो उन्हें ये अधिकार है कि वे अपनी पार्टी के विचार के हिसाब से नीतियों और योजनाओं में परिवर्तन करें। साथ ही उन्हें ये भी हक है कि देश के प्रतिष्ठानों में बरसों से काबिज़ उन लोगों से सवाल पूछें जो किसी विचारधारा-विशेष अथवा पार्टी के लिए काम करते रहे हैं। और ज़रूरी हो तो कायदे-कानून के भीतर ऐसे लोगों को बाहर का रास्ता भी दिखाएं।

देश का वैचारिक अधिष्ठान किसी ख़ास राजनीतिक विचार का ही अनुगामी नहीं हो सकता। रही बात आरएसएस की तो यह संगठन क्या एक अवैधानिक संस्था है? देश में लंबे समय तो राहुल की पार्टी ही सत्ता में रही है, अगर ऐसा था तो वे इसे ख़त्म क्यों नहीं कर पाए?

इस राजनीतिक लड़ाई में हुई हार को ठीक से पचाना भी तो लोकतांत्रिक नज़रिए की एक अहम शर्त है। आरएसएस पर उनका हमला कहीं उनकी अपच का नतीजा तो नहीं? अगर ऐसा है तो इस बदहज़मी के लिए जो गोली वो ले रहे हैं वह पुरानी हो चुकी है।

2015 का भारत एक अलग भारत है। यह देश लाइसेंस- परमिट, कोटा राज और उससे पैदा होने वाली घोटालों भरी राजनीति की अंधी गली में शायद फिर से नहीं जाना चाहेगा। उन्हें शायद याद दिलाना होगा कि उनकी पार्टी ने ही ये रास्ता छोड़ कर विकास का दूसरा रास्ता अपनाया था।

इसलिए जो राजनीतिक आर्थिक फार्मूला खारिज हो चुका है उसे फिर से दोहराने से उन्हें क्या हासिल होगा? यह एक वैचारिक संकट है। राहुल इससे बाहर आकर ही अपनी पार्टी को दुबारा खड़ा कर सकते हैं। नहीं तो यह उनका एक ‘रोमांटिक राजनीतिक ख्याल’ बनकर ही रह जाएगा। इससे न कांग्रेस का भला होगा, न ही देश का।

उमेश उपाध्याय
31 मई 2015




Wednesday, May 20, 2015

#Modi365 One Year of Modi Government दिल्ली के पुश्तैनी पैरोकार, सुपर दरबारी पत्रकार, क्षुब्ध बाबू और मोदी का एक साल

दिल्ली के पुश्तैनी पैरोकार, सुपर दरबारी पत्रकार, क्षुब्ध बाबू और मोदी का एक साल
मोदी सरकार के एक साल की समालोचना एक टेढ़ी खीर है, इसलिए नहीं कि ऐसा करने में कोई बौद्धिक दिक्कत हो या फिर ये काम ही मुश्किल है। दिक्कत थोड़ी दूसरी किस्म की है। एक तरफ मोदी भक्तों या चंपुओं की जमात है, जो थोड़ी भी आलोचना पर आप पर टूट पड़ेंगे, तो दूसरी तरफ है, एक ऐसा वर्ग, जो किसी भी तरह बस यही सिध्द करने में लगा हुआ है कि 26 मई 2014 को मोदी की ताजपोशी के बाद से देश का लोकतंत्र और व्यवस्था खतरे में पड़ गई है। जैसे ही आप कुछ भी कहेंगे, इनमें से कोई न कोई आपके पीछे ज़रूर पड़ेगा। खैर, मोदी सरकार के एक साल का आकलन करने वालों को ये खतरा तो उठाना ही पड़ेगा।
पिछले दिनों एक मझोले दर्जे के सरकारी अफसर से बात हो रही थी। जनाब काफी नाराज़ थे। कहने लगे 'देखिये भाई' हमारे तो बुरे दिन आ गए हैं। सुबह अगर 9 बजकर दस मिनट तक दफ्तर नहीं पहुंचे तो आधे दिन की ग़ैरहाज़िरी लग जाती है'। ये जनाब काफी खेले खाए अफसर हैं। हमने जब पूछा कि ये बताइये कि ‘काम वाम’ हो रहे हैं कि नहीं? ”सो बोले कि अभी तो साहब लोग किनारे बैठकर देख ही रहे हैं। सो ‘धंधापानी’ भी ठप सा है। इन्ही साहब ने हमें बताया कि सचिव स्तर के एक अधिकारी को एक सरकारी समारोह में न जाने पर आधे दिन की केजुअल लीव लेनी पड़ी थी। सो ‘अच्छे दिनों’ के आदी रहे सरकार के बाबू आमतौर से मोदी सरकार के मुरीद नहीं हैं।
दिल्ली में एक तबका है पुश्तैनी पैरोकारों का। इनका काम रहा है लोगों के काम कराना। ये एक ऐसी जमात है, जो आपको अंग्रेज़ी अखबार के तीसरे पन्ने पर अक्सर दिखाई देगी। दिल्ली के किसी भी महकमे में आपको कैसा भी काम हो, चाहे वह लोकल थानेदार हो या पीएमओ, इनकी लगातार जुगाड़ रही है। मंत्री कोई हो- सल्तनत किसी की रही हो, इस वर्ग के रुतबे और ओहदे में कमी नहीं आई। काम कराने की, मिलने-मिलवाने की और ट्रांसफर/पोस्टिंग कराने की इनकी ज़बरदस्त क्षमता रही है। इसके बल पर इन्होने एक बड़ा नेटवर्क तैयार किया है। दिल्ली में सरकार किसी की रही हो 'लुटियंस' दिल्ली में चलती इन्हीं की रही है। ये पुश्तैनी पैरोकार आजकल बहुत ही परेशान है क्योंकि इन दिनों इनकी दाल कुछ कम गल रही है। अब तो आलम यह है कि इनमें से कई आपसे ही पूछते मिल जाएंगे कि 'भाई आजकल किसकी चल रही है?' इनकी तकलीफ समझी जा सकती है!
एक और असरदार तबका है– सुपर दरबारी पत्रकारों का। इनकी पैठ और पहुँच दिल्ली की हर सरकार में अबाध रही है। सरकारें और प्रधानमंत्री आए-गए, मगर इनका रसूख कभी कम नहीं हुआ। जनमानस से दूर रहने के बावजूद अपनी वाकपटुता और साधारण बातों को सैधांतिक बौद्धिकता की चाशनी चढ़ाने की इनकी कला के कारण ये हमेशा सत्ता वर्ग के करीब रहे हैं। इनमे से कई अकूत संपत्ति के मालिक हैं और विलासितापूर्ण जीवन बिताते हैं। मजेदार बात है कि यही लोग निष्पक्ष पत्रकारिता, पत्रकारीय मूल्यों और ईमानदारी के झंडाबरदार बने रहे हैं। इनमे से कई आजकल बहुत विक्षुब्ध हैं क्योंकि इनकी पहुँच एक साल में काफी कम हो गई है। काम करवाना तो दूर, मोदी सरकार में ताकतवर लोगों से इन्हें खुद भी मिलने में दिक्कत हो रही है। वैसे एक बात साफ़ करना ज़रूरी है, वो ये कि इनकी वाक्पटुता और रीढ़ की हड्डी के लचीलेपन को कम करके नहीं आंकना चाहिए और कोई आश्चर्य नहीं होगा कि फिर से इनमें से कई सुपर दरबारी हो जाएं, मगर फिलहाल ये रोष में हैं क्योंकि कई साल बाद ये सत्ता के केंद्र से दूर हैं।
आमतौर से भाजपा और संघ के समर्थक माने जाने वाले कई लोग भी आजकल पीड़ा के दौर से गुज़र रहे हैं। उन्हें लगता है कि सरकार आने पर उन्हें कुछ नहीं मिला। इनमे से कई को उम्मीद्द थी कि नए निजाम में ये नए पैरोकार हो जाएंगे, मगर ऐसा अभी तक नहीं हुआ है सो इनकी बैचैनी काफी बढ़ गई है। इनमे से ज्यादातर आपको कहते मिल जाएंगे 'ये सरकार तो कुछ कर ही नहीं रही।' या फिर 'ये तो वैसी ही सरकार है। इसमें नया कुछ नहीं है।' सरकार का सबसे बड़ा आलोचक यही बेचैन वर्ग है।
अगर आप देखें तो ऊपर बताए लोग दिल्ली में सत्ता की धुरी के हमेशा पास रहे हैं। किसी के बारे में अच्छी या सही छवि बनाने में इनकी भूमिका अहम् रही है। मोदी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि सत्ता के गलियारों से ऊपर बताये ये बिचौलिए अब गायब हो गए है। शायद ये सबसे मुश्किल काम भी था। अब इन लोगों की सुनी जाए तो इस सरकार ने कुछ भी नहीं किया। ये मोदी के कुछ चुनावी जुमलों जैसे 'अच्छे दिन' वगैरह को अपने लेखों और टेलिविज़न चर्चाओं में रबड़ की तरह खींचते हुए मिल जाएंगे।
मगर सवाल है कि तो फिर असलियत क्या है? क्या पिछले साल में सब कुछ हरा-हरा ही रहा है? क्या मोदी ने चुनावी माहौल में जनमानस में अपेक्षाओं का जो ज्वार पैदा किया था, उस पर वे खरे उतरे हैं? सवाल कई हैं? और असलियत कहीं बीच में है।
अगर बगैर किसी चश्मे के देखा जाए तो विदेश नीति, अर्थव्यवस्था की मोटी-मोटी स्थिति, महंगाई, विकास की दर, भ्रष्टाचार मिटाने के लिए उठाये गए कदम, प्रशासनिक मुस्तैदी और देश में एक सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए मोदी सरकार ने बेहतरीन काम किया है। साथ ही कुछ नए संकल्पों, जैसे स्वच्छ भारत, जनधन योजना और जनसाधारण के लिए शुरू की गई प्रधानमंत्री बीमा योजनाओं के लिए मोदी सरकार की कल्पनाशीलता की सराहना की जानी चाहिए।
मगर कुछ मोर्चों पर मोदी सरकार की गति धीमी रही है। इस देश को नौकरियां चाहिए। इसके लिए ज़रूरी है, देश के मझोले और लघु उद्योगों में नई जान फूंकना। अगर उद्योग नहीं बढ़ेंगे तो हमारी युवा पीढ़ी का क्या होगा? देश के किसी भी औद्योगिक शहर में चले जाइए छोटे से बड़ा कारखानेदार हैरान और परेशान ही मिलेगा। इस दिशा में जिस गति से फैसले होने चाहिए वैसा अभी दिखता नहीं है। सरकार भूमि अधिग्रहण का अध्यादेश लाई मगर फिर इसपर रक्षात्मक क्यों हो गई? बढ़ती हुई जनसंख्या और उसकी ज़रूरतों के लिए शहरीकरण और औद्योगीकरण आवश्यकता ही नहीं, बल्कि देश की अनिवार्यता है। लम्बे समय बाद पूर्ण बहुमत से आई केंद्र सरकार अपने इस कर्तव्य से इसलिए नहीं डिग सकती क्योंकि कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं।
टैक्स कानून लागू करने की तरफ भी सरकार शायद इन्कम टैक्स महकमे के बाबुओं के दबाव में आ गई, नहीं तो कोई कैसे रिटर्न भरने के लिए इतने जटिल फ़ॉर्म की कल्पना भी कर सकता है, जो इन्कम टैक्स विभाग ने प्रस्तावित किया था? वो तो भला हो केंद्रीय वित्त मंत्री के सीधे दखल का कि विभाग अब एक नया फ़ॉर्म बना रहा है। ये उदाहरण बताता है कि इस सरकार को बाबुओं के जाल से बचने की ज़रुरत है।
वैसे एक बात स्पष्ट कर देना ठीक रहेगा कि जनता ने मोदी को पांच साल के लिए प्रधानमंत्री चुना है इसलिए उनसे पूरा हिसाब-किताब आज ही मांगना उचित और तर्कसंगत नहीं है। आज अगर किसी बात का आकलन किया जा सकता है, तो वह है इस सरकार की दिशा, उसके द्वारा बनाई गई नीतियों से मिलने वाले संकेत और सरकार की नीयत के सबूत। दूसरी बात ये कि आजादी के बाद पहली बार दिल्ली में सरकार ही नहीं बदली बल्कि एक पूर्ण सत्ता परिवर्तन हुआ है, इसलिए पुराने मानकों और कसौटियों पर ही अगर आप इस एक साल को तौलेंगे तो शायद आप उतने सही न हों।
वैसे इस सरकार ने एक साल में देश को अकर्मण्यता, निराशावाद और लचर प्रशासन के माहौल से बाहर तो निकाला है और इससे इसका बड़े से बड़ा आलोचक भी इनकार नहीं कर सकता।
उमेश उपाध्‍याय
19 मई 2015