Wednesday, October 12, 2016

पाकिस्तान-परस्ती के नये रंग #SurgicalStrikes

भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पाकिस्तान से ज्यादा परेशान वे लोग हैं जो देश के अंदर बैठकर ही पाकिस्तान की तरफदारी करते रहे हैं। यहां शुरू में ही मुझे ये साफ कर देना जरूरी है कि मुझे भी पाकिस्तान की जनता या खुद अपने पड़ोसी देश से कोई तकलीफ नहीं। मैं उसे दुश्मन भी नहीं मानता। हां, मुझे उस पाकिस्तान से तकलीफ है जो आज दुनिया में आंतकवाद का प्रतीक बन गया है। पाकिस्तान की उस आतंकी सोच से परेशानी है जो हिन्दुस्तान को हज़ार जख्म देना चाहता है और इसी कारण सीमापार से आतंक की एक फैक्टरी चला रहा है।
अब जरा देश में पाकिस्तान परस्ती और उसके समर्थकों पर नजर डालना जरूरी है। ये सोच रखने वाले लोगों की कुछ मूल अवधारणाएं हैं। पहली अवधारणा है, भारत के मुसलमानों को पाकिस्तानी खूंटे से बांधना। दूसरी अवधारणा, प्रधानमंत्री मोदी के राष्ट्रवाद को हिन्दू राष्ट्रवाद घोषित करना। तीसरा, जो भी मोदी करें उसे एक खांचे में समेट कर उसके बारे में शक और अफवाह का माहौल पैदा करना। ऐसा करके ये लोग देश के मुसलमान, राष्ट्रवादी सोच और भारत तीनों के ही साथ अन्याय कर रहे हैं। भारत का हर नागरिक - चाहे किसी भी सम्प्रदाय या मज़हब का क्यों न हो, पहले भारतीय है और बाद में आता है उसका मज़हब। दूसरा, राष्ट्रप्रेम को किसी संकीर्णता से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। तीसरी बात ये कि कुछ नीतियों पर आज़ादी के बाद से ही देश एकराय रखता है उसमें दलगत सोच नहीं आती - वह है देश की एकता और सुरक्षा। आतंकवाद से लड़ाई सीधे देश की सुरक्षा से ही जुडी है।
दिल्ली के मुख्यमन्त्री अरविंद केजरीवाल का बयान है कि भारत को दुनिया के सामने सिद्ध करना चाहिए कि सर्जिकल स्ट्राइक हुए थे या नहीं । एक्टर सलमान खान कहते हैं कि पाकिस्तानी कलाकार, आतंकवादी नहीं हैं। ओमपुरी कहते हैं कि सीमा पर शहीद होने वाले जवानों से किसने कहा था कि वह जाकर सेना में भर्ती हों। इन सभी की दिक्कत शायद ये है कि जाने अनजाने में वे अपनी बात कहते हुए ये भूल गए कि इससे आतंक फैलाने वालों का फायदा हो सकता है। इनमें से कुछ मोदी के विरोधी हैं। मगर मोदी और बीजेपी का विरोध करते हुए ये कब पाकिस्तानी आतंकियों की हिमायत करने लगते हैं इन्हें शायद पता ही नहीं पड़ता।
दिलचस्प बात यह है कि ये सब अपने पहले दो वाक्यों में सेना की तारीफ करते हैं और मोदी के साहसिक फैसले को अच्छा बताते हैं। लेकिन इसके बाद इतने किन्तु-परन्तु लगाते हैं कि इनके पहले वाक्य कहीं पीछे रह जाते हैं। क्या सेना की तारीफ सिर्फ इनकी चालाकीपूर्ण रणनीति तो नहीं? पाकिस्तान अपनी झेंप छिपाने के लिए बस में भरकर उन कुछ स्थानों पर मीडिया को लेकर गया जहां भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक किए थे। दिल्ली के मुख्यमंत्री ने अपने बयान में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित इसी मीडिया दौरे का हवाला दिया। सवाल है कि इतने दिनों बाद क्या पाकिस्तानी सेना अपनी पिटाई के नामो निशान वहां रहने दे सकती है ?
संचार क्रांति के इस युग में आपसी तनातनी में हर देश मनोवैज्ञानिक लड़ाई का सहारा लेता है। क्या उसके प्रचार तंत्र का शिकार हमें होना चाहिए ? पाकिस्तान पिछले सालों में परमाणु युद्ध की धमकी का इस्तेमाल भारत में आतंकवाद फैलाने के रक्षाकवच के रूप में करता रहा है। सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में भारत ने ऐसा धोबी पछाड़ मारा है कि पाकिस्तान को बेइन्तहा दर्द हो रहा है। इसे कम करने के लिए उसके प्रचारतंत्र ने मीडिया की इन कहानियों का तानाबना बुना। पाकिस्तान द्वारा यह करना लाजमी ही है मगर केजरीवाल की क्या मजबूरी है कि वे इन मीडिया रिपोर्ट्स का सहारा लेकर सेना की इन स्ट्राइक्स को साबित करने को कहें?
उनकी मजबूरी शायद ये है कि वे अपने को प्रधानमंत्री मोदी के बराबर दिखाना चाहते हैं। केंद्र सरकार के इस साहसिक, राजनीतिक, कूटनीतिक और सामरिक दाव के बाद संभवतः उन्हें लगा है कि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता बढ़ रही है। इस समय केजरीवाल को सिर्फ पंजाब के चुनाव नजर आ रहे हैं। उन्हें लगता है कि पंजाब में सत्ता की सजी थाली कहीं उनसे छूट न जाए। इसीलिये उन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक पर ही कुछ सवालिया निशान खड़े कर दिए ? वैसे सरकार ने ये ठीक फैसला लिया है कि इन स्ट्राइक्स के वीडियो सार्वजनिक नहीं किये जाएंगे। सीमा पर चल रहा आतंकवाद कोई हंसी मज़ाक नहीं है। वहां खून की होली हो रही है कोई टीवी की बहस नहीं जहाँ ज़ुबानी जमाखर्च से काम चल जाता है। सेना के ऑपरेशन की जानकारी देना बिल्कुल ऐसा ही होगा जैसे कि चक्रव्यूह रचते हुए आप दुश्मन को उसकी जानकारी देदें कि आपने ऐसा कैसे किया। अगर आप ऐसा करते है तो फिर आगे कभी आप ऐसा नहीं कर पाएंगे।
अब जरा चलते हैं ओमपुरी, सलमान खान, महेश भट्ट और करण जौहर आदि की तरफ। मैं भी मानता हूं कि पाकिस्तानी कलाकार आतंकवादी नहीं। मगर भारत में आकर काम करने वाले कलाकारों और खिलाडिय़ों को भारत के खिलाफ हो रही आतंकवादी गतिविधियों की निंदा तो करनी ही चाहिए। उनसे किसी ने नहीं कहा कि वे अपने देश की निंदा करें। मगर उड़ी में आतंकवादी हमलों में भारतीय जवानों की हत्या की वे निंदा भी न करें और फिर भी भारतीय दर्शक उन्हें सिर पर बिठाकर रखें - ये कैसा तर्क है? सलमान, महेश भट्ट और करण जौहर को समझना चाहिए कि कोई भी कला या कलाकार देश से बड़ा नहीं होता। पूरी फिल्म इंडस्ट्री को भी एक साथ रख दिया जाए तो वे एक फौजी के खून के पासंग के भी बराबर नहीं।
केजरीवाल, सलमान, करण जौहर या महेश भट्ट अपने विचारों के लिए स्वतंत्र हैं। लोकतंत्रीय व्यवस्था में उनके विचार ज़रूर एक स्थान रखते हैं - उनका स्वागत और सम्मान हमारी व्यवस्था करती है। वे मोदी, भारत सरकार और सत्तारूढ़ दल के खिलाफ खूब बोलें। बहुत सारे मुद्दे है इसके लिए। पर जब सवाल देश की सेना, पाक प्रायोजित आतंकवाद और उसके खिलाफ भारत की रणनीति का हो तो वे उस लक्ष्मण रेखा का भी ध्यान रखें जो भारतीय मानस में खिंची हुई है। राजनीतिक विरोध और वैचारिक आग्रह एक तरफ हैं लेकिन इस बार ऐसा लगता है कि मनोवैज्ञानिक युद्ध में ये लोग जाने या अनजाने में पाकिस्तान के प्रचारतंत्र का हिस्सा ही बन गए हैं।
उमेश उपाध्याय 12/10/16

Friday, August 5, 2016

राजनाथ की पाकिस्तान को खरी खरी!


राजनाथ सिंह ने पकिस्तान जाकर बहुत अच्छा किया। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ये कह कर काम नहीं चलता कि आप सदा कुट्टी कर के बैठे रहेंगे और संबंधों की औपचारिकताएं भी नहीं निभाएंगे। और फिर ये तो दक्षेस देशों की बैठक थी। याद रखना चाहिए कि शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ और अमेरिका भी आपस में बात करते थे। इसलिए गृह मंत्री की उन आलोचनाओं पर कान नहीं धरने चाहिए जो कह रहे हैं कि उन्हें पाकिस्तान नहीं जाना चाहिए था। मूल बात यह है कि वहां जाकर उन्होंने क्या किया। क्या उन्होंने औपचारिकताओं में पड़ कर राजनयिकों की तरह घुमा फिराकर बात की या फिर मज़बूती के साथ भारत की बात रखी?
मुझे इन्टरनेट पर एक पाठक की ये टिप्पड़ी बहुत ही सार्थक लगी। उसने लिखा है "राजनाथ सिंह ने पाकिस्तान के सबसे बड़े उद्योग पर कड़ा प्रहार किया। वह उद्योग जिसकी पकिस्तान की जीडीपी में सबसे बड़ी हिस्सेदारी है।" यानि की आतंकवाद। भारत के गृह मंत्री को इस बात के लिए 100 में से 100 नंबर दिए जाने चाहिए कि वे बेकार के दिखावे में नहीं पड़े।न तो पाकिस्तान के गृहमंत्री निसार अली खान से मिलते हुए और ना ही अपनी बात कहते हुए। उन्होंने कहा कि एक देश का आतंकवादी दूसरे देश के लिए स्वतंत्रता सेनानी नहीं हो सकता। राजनाथ सिंह ने नाम तो नहीं लिया मगर इशारा साफ़ था। पाकिस्तान आतंकवाद से लड़ने के नाटक करे और फिर भारत के खिलाफ हथियार उठाने वाले आतंकवादी बुरहान वानी को स्वतंत्रता सेनानी बताये ये कैसे चलेगा ? उसके लिए पाकिस्तान मे बंद आयोजित किया जाए ये कैसा दोगलापन है?
ये सही है की पाकिस्तान ने आतंकवाद को अपनी विदेश नीति के औजार के तौर पर इस्तेमाल किया है और ये भी सही है कि अब खुद पाकिस्तान भी इस आतंकवाद का शिकार हो रहा है। पकिस्तान जब तक कश्मीर और भारत को लेकर अपनी नीति मे बुनियादी बदलाव नहीं लाएगा वह इस मुश्किल से बहार नहीं निकल सकता। आज तो वह दुनिया में आतंकवाद का सबसे बड़ा निर्यातक देश बन कर रह गया है।किसी वक़्त दुनिया उसके झांसे में आ भी जाती थी मगर आज तो उसके आतंक के व्यापारी सऊदी अरब तक जाकर ये खूनी खेल खेलने लगे हैं। अगर सऊदी भी पाकिस्तान से किनारा कर लेंगे तो फिर उसका क्या होगा?
यहाँ राजनाथ सिंह ने जो दूसरी नसीहत पाकिस्तांन को दी है अगर वह उस पर अमल करे तो वह खुद के बनाये इस खूनी जंजाल से बाहर निकल सकता है। राजनाथ सिंह ने अपने भाषण में कहा कि आतंकवादी सिर्फ आतंकवादी होता है। आप एक आतंकवादी को अच्छा कहकर गले नहीं लगा सकते और दूसरे को बुरा कह कर मार नहीं सकते। बात साफ़ है। पकिस्तान आतंकवाद को टुकड़ों में बाँट कर नहीं देख सकता। अगर कश्मीर में हथियार उठाने वालों को पाकिस्तान स्वतंत्रता सेनानी बोलेगा तो फिर पख्तूनों और बलूचियों के लिए लड़ने वाले भी तो यही तर्क ले सकते है? यानि आप हमेशा मीठा मीठा गप और कड़वा कड़वा थू नहीं कर सकते।
वैसे तो पकिस्तान ने राजनाथ सिंह के भाषण के बाद ही भारत और कश्मीर को लेकर अपनी घिसीपिटी बातें दोहरा दीं।ऐसा अपेक्षित ही था। और आप उम्मीद भी नहीं करते कि अचानक से एक देश अपनी वो भाषा बदल देगा जो वह 60 साल से बोलता आया है। मगर यह पकिस्तान के लिए ही बेहतर होगा कि गृहमंत्री राजनाथसिंह ने पूरे भारत की भावना को अभिव्यक्त किया है उसपर वह ठन्डे दिमाग से गौर करे और अपनी नीतियों में बदलाव लाये। नहीं तो पकिस्तान के लिए आने वाला अंतरराष्ट्रीय माहौल ठीक नहीं होगा। कश्मीर में वह भारत को जितना नुकसान पहुंचा सकता था पहुंचा चुका है। भारत में इससे निपटने की इच्छाशक्ति, ताकत, कौशल, साधन, धैर्य और हौसला है। मगर पाकिस्तान नहीं बदला तो शायद संभल नहीं पायेगा।

उमेश उपाध्याय
5 अगस्त 16

Sunday, July 31, 2016

कावँड यात्रा-भारत बनाम इंडिया !



सावन की शिवरात्रि के दिन कल देश में करोड़ों काँवड़िए अपने नगर, गाँव, बस्ती, मुहल्ले, क़स्बे के शिवालय में गंगा अथवा अन्य पवित्र नदी के जल से अपने आराध्य भगवान शिव का अभिषेक करेंगे। इन कांवड़ियों में महिलाएँ, बच्चे, बूढ़े, समर्थ, असमर्थ सभी शामिल होते हैं। कुछ चित्र मैंने आपके लिए आस्था की इस पवित्र यात्रा के लिए अपने फ़ोन में क़ैद किए हैं।

अपने आराध्य के प्रति समर्पण, त्याग और परिश्रम की प्रतीक ये कांवड यात्रा शताब्दियों से अनवरत चल रही है। भोलेनाथ की प्रसन्नता के लिए कई कांवड़िये तो कई सौ किलोमीटर पैदल गंगा तक जाते हैं और फिर अक्सर नंगे पाँव लौटकर अपने शिवालय में उनकी पूजा अर्चना करते है।
ज़्यादातर कांवड़िये ग्रामीण, अर्धशहरी, क़स्बाई या शहरों की अपेक्षाकृत कम सम्पन्न बस्तियों के परिवेश से आते हैं। इसलिए हमारे तथाकथित 'सभ्य और संभ्रांत समाज' और मुख्यधारा का मीडिया या तो इनकी अनदेखी करता है अथवा इन्हें एक समस्या के रूप में देखता है। इनकी आस्था पर उसकी नज़र कम ही जाती है। हाँ, इनके सड़क पर चलने से होने वाली तकलीफ़ों और क़ानून व्यवस्था पर अनेक ख़बरें आपको मिल जाएँगी ।


भारत और इंडिया का ये फ़र्क़ इस दौरान साफ़ नज़र आता है। ये अलग बात है कि इस बार जितने कांवड़िये दिखाई दिए उनमें से तक़रीबन 90 फ़ीसदी अपनी आस्था के ध्वज के साथ भारत का तिरंगा भी साथ लेकर चल रहे थे। वैसे आजकल के माहौल में इनके राष्ट्रप्रेम को भी कई समझदार लोग अपने ही ख़ास नज़रिए से देख उसे हल्का कर आंक सकते हैं!


इसे आप एक धार्मिक-सांस्कृतिक अनुष्ठान के रूप में भी देख सकते हैं या फिर समस्या के रूप में भी। बस नज़रिये के बात है। पता नहीं कब 'इंडिया' इस भारत को समझेगा और अपनायेगा ?

Thursday, July 21, 2016

कश्मीर की मौजूदा चुनौती : एक आग का दरिया है और डूब के जाना है



ग़ालिब की ये पंक्तियां देश के आज के हालात और भारत सरकार तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर खूब लागू होतीं हैं  हिंदुस्तान को चलाना और फिर उसे नए अंदाज़ और तरीके से चलाना एक बेहद चुनौती पूर्ण कार्य है  ये चुनौतियां बहु आयामी हैं एक तरफ आपके सर पर पाक आयोजित आतंकवाद है तो दूसरी और अंदरूनी मुश्किलात हैं जिनके पीछे कई राजनीतिक और सामाजिक ताकतें हैं जो किसी भी हाल में नहीं चाहेंगी कि हालात  सामान्य हों इन सबके बीच है बीजेपी और सरकार के पास अनुभवी सिपहसालारों की कमी जो चीजों और मुद्दों को सही तरीके से निपटा सकेंये कमी कभी देश के शिक्षा संस्थानों में हो रहे करतबों, कभी उत्तराखंड/अरुणाचल की राजनीतिक कलाबाजियों और कभी असंवेदनशील, अमर्यादित और बेतुके बयानों में साफ़ दिखाई देती है

लेकिन आज जो सबसे अहम मसला सामने है वो  कश्मीर  के हालात का है  कश्मीर का मामला बेहद जटिल है और इसके कोई सीधे हल नहीं हैं टीवी चैनलों के सतही बहस मुसाहिबों और द्रवित ह्रदय से लिखे सम्पादकीयों से इसका कोई हल निकलने वाला भी नहीं है ये बात सही है कि टीवी और मीडिया में चलने वाली बहस अक्सर भावावेश से गुजर कर मनोरंजन के हलके स्तर पर जाकर खत्म हो जाती है  मगर यकीन मानिए जो कश्मीर घाटी में  इन दिनों हो रहा है वह हल्के स्तर पर नहीं लिया जा सकता हम ये जानते हैं कि कश्मीर में भारत एक युद्ध लड़ रहा है ये लड़ाई लम्बी है क्योंकि इसमें जो विरोधी है उसने कई चीज़ों का घालमेल कर रखा हैउसका एक सिरा आतंकवाद से जुड़ता है तो दूसरा मज़हब के आधार पर घाटी में नस्लगत सफाई की एक सतत प्रक्रिया सेइसका तीसरा सिरा पकिस्तान की भारत विरोधी विदेश नीति से ताल्लुक रखता है तो चौथा उसकी अंदरूनी राजनीति की उठा पटक से


कश्मीर कोई एक पार्टी या एक नेता का मुद्दा नहीं है यह पूरे देश का मुद्दा है इसलिए ये ज़रूरी है कि पूरे देश से एक ही आवाज़ बाहर जाए  आप चाहे मीडिया से हों या फिर अलग अलग राजनीतिक सोच रखने वाली पार्टियों से - आप कश्मीर के भविष्य के बारे में अलग सोच नहीं रख सकते हाँकिसी हालात को किसी वक़्त कैसे निपटाया गया इसपर आपकी राय अलग हो सकती है मगर पिछले दिनों घाटी से बाहर भी कई ऐसे स्वर उभरे हैं जो अगर देशद्रोही नहीं तो फिर भारत के प्रति भलमनसाहत रखने वाले भी नहीं हैं आज जो आवाज़े उठ रहीं हैं वे उस समय कहाँ थीं जब वहां कश्मीरी पंडितों पर हिंसा का कहर टूटा था? आज जो लोग अपनी धरती छोड़ कर अपने ही देश में निर्वासित हैं उनके मूलभूत अधिकारों की बात करना भी क्या ज़रूरी नहीं है?  

सारी भारत विरोधी ताकतें एक होकर किसी भी तरह उस माहौल को बिगाड़ना चाहती हैं जो देश ने बड़ी मुश्किलों  के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाक प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ बनाया है इस गम्भीर परिस्थिति को धैर्य, कड़े मनोबल, सूझबूझ और कौशल से ही निपटा जा सकता है घोषित आतंकवादियों जिनमे बुरहान वानी भी शामिल है, को मार गिराना सेना और पुलिस का काम है जो उन्होंने बखूबी निभाया है लेकिन आतंकवाद जब नागरिकों को अपनी ढाल बना कर हथियार के रूप में इस्तेमाल करे तो फिर कभी बोली तो कभी गोली का इस्तेमाल करना होगा 

कश्मीर के हालात में तूफ़ान कोई पहली बार नहीं आया हैइससे मुश्किल वक़्त भी इस देश ने वहां देखा है और उसे बड़े धैर्य, जतन और बलिदानों  के साथ कामयाबी हासिल की है इसलिए कैसे भी हालात हों इस बात को कैसे सही ठहराया जा सकता है कि देश के बाकी हिस्सों में 'आज़ादी' के नारे लगें  क्या मोदी विरोध में आप इतने आगे चले जाएंगे कि आप देश को पीछे छोड़ देंगे ? देश की सेना का मनोबल तोड़ने वाली बातें करेंगे? संयम की ज़रुरत सबको है  मीडिया, सरकार, विपक्षी दलों और बुद्धिजीवियों सबको  क्योंकि कश्मीर का सवाल देश का सवाल है 

सरकार की ज़िम्मेदारी देश चलाने की है इसलिए उसका उत्तरदायित्व भी कहीं ज़्यादा है जैसा मैंने  ऊपर कहा कि कई मौकों पर सरकार के लोगों की सूझबूझ, कौशल और अनुभव की कमी प्रधानमंत्री और शीर्ष राजनैतिक नेतृत्व के लिए परेशानी का कारण बनी है मगर प्रधान मंत्री भी ये जानते हीं होंगे कि उनके सामने जो समस्याओं का पहाड़ है खासकर कश्मीर में वह बड़ा विकट है मगर उम्मीद भी लोगों को उनसे ही है आग के इस दरिया को तैर के पार करने की ताकत और मनोबल अगर किसी में है तो वह उन्हीं में है इसलिए प्रधान मंत्री मोदी और उनकी सरकार के लिए के लिए कश्मीर में ये परीक्षा की घड़ी है जिसकी कामयाबी की प्रार्थना करोड़ों भारत वासी कर रहे है

उमेश उपाध्याय
20 जुलाई 2016